Kabir Ke Dohe: कबीर के 300 दोहे अर्थ सहित

Kabir Ke Dohe – संत कबीर के 300 दोहे: कबीर जी 15वीं शताब्दी के एक महान कवि थे। उनकी लिखी हुई कविताओं तथा दोहों की मदद से भक्ति आंदोलन को बढ़ावा मिला था।

उनका जन्म उत्तर प्रदेश में वाराणसी में हुआ था। वास्तव में वे एक मुस्लिम दंपति को लहरतारा तालाब के नजदीक मिले थे। तथा वे ही कबीर के माता – पिता बने। उनके पिता का नाम नीरू तथा माता का नाम नीमा था।

वे लोग पेशे से बुनकर थे। इसलिए कबीर भी बड़े होकर एक बुनकर बने। उन्होंने पढ़ाई लिखाई नहीं की थी। लेकिन उन्होंने ऐसे – ऐसे दोहे लिखे जिन्हें आज भी लोग पढ़ने और लिखते हैं।

उनके दोहे उस समय की सरल भाषा में लिखे गए हैं। तथा वे जीवन के गूढ़ ज्ञान को भी सरलता से व्यक्त कर देते हैं। उन्होंने अपने दोहों में हिन्दू और मुस्लिम धर्म में व्याप्त कुरीतियों पर भी व्यापक चोट की है। तथा भक्ति को भी बढ़ावा दिया है।

आगे संत कबीर के 300 चुने हुए दोहे (Kabir Ke Dohe) दिए गए हैं। इन्हे पढ़कर आपको जीवन का दिव्य ज्ञान मिलेगा।

Kabir Ke Dohe in Hindi
Sant Kabir Ke Dohe

Kabir Ke Dohe in Hindi

1. माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ,
कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि माला फिरते हुए एक सदी बीत गई लेकिन फिर भी आदमी का मन नहीं बदला। इसलिए हाथ में पकड़ी हुई माला को छोड़कर हमें पहले अपने मन को बदलना चाहिए। अर्थात अपने अंदर की बुराई को अच्छाई में बदलना चाहिए।

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2. साईं इतना दीजिए, जामें कुटुंब समाय,
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ।

सरलार्थ: इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि हे प्रभु मुझे इतना धन दीजिए जिसमें मेरे परिवार का गुजारा हो सके। जिससे मुझे भी भरपेट भोजन मिल जाए और मेरे दरवाजे पर आया हुआ साधु भी भूखा ना लौटे।

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3. लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट,
पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ।

सरलार्थ: मनुष्य जब तक जीवित है उसे राम नाम का सुमिरन करना चाहिए। वरना एक दिन उसके प्राण चले जाएंगे और फिर वह बहुत पछतायेगा। क्युँकि परलोक में उसके कर्मों का हिसाब किया जाएगा।

4. जात ना पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान ,
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।

सरलार्थ: हमें कभी भी किसी साधु की जाति नहीं पूछनी चाहिए बल्कि वह जो ज्ञान दे रहा है उस पर ध्यान देना चाहिए। जैसे हमें तलवार का मूल्य लगाना चाहिए, उसके म्यान से हमें कोई मतलब नहीं होना चाहिए। अर्थात अगर कोई छोटा व्यक्ति भी हमें ज्ञान दे, तो हमें उसकी योग्यता आदि नहीं पूछनी चाहिए। बल्कि यह देखना चाहिए कि उसकी कही बात कितनी सही है।

5. दुःख में सुमिरन सब करे, सुख मे करे न कोय ,
जो सुख मे सुमिरन करे, दुख कहे को होय।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि दुख पड़ने पर हर आदमी ईश्वर की पूजा करने लगता है। लेकिन जब सुख का समय होता है तो वह ईश्वर को भूल जाता है। अगर हम सुख के समय भी ईश्वर की पूजा करते रहे तो दुख कभी आएगा ही नहीं।

6. गुरु गोबिंद दोनो खड़े, काके लागूँ पाय ,
बिलहारी गुरु आपनो, गोविन्द दियो मिलाय।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि मेरे द्वार पर गुरु और गोविंद (श्री कृष्ण) दोनों खड़े हैं। अब मुझे पहले किसके पैर छूने चाहिए। फिर वे निर्णय करते हैं कि गुरु ही दोनों में बड़े हैं, क्युँकि गुरु की वजह से उन्हें गोविंद के दर्शन हुए हैं।

7. तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँव तले होय ,
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घनेरी होय।

सरलार्थ: संत कबीर कहते हैं कि हमें कभी भी पैरों के नीचे पड़े हुए तिनके की भी निंदा नहीं करनी चाहिए। क्युँकि समय के साथ अगर वह हमारी आंखों में पड़ जाए तो हमें काफी तकलीफ दे सकता है। अर्थात हमें छोटे से छोटे व्यक्ति की भी निंदा नहीं करनी चाहिए। पता नहीं कब उसका समय बदल जाए और वह हमसे प्रतिशोध लेना चाहे।

8. जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप,
जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि सबसे बड़ा धर्म दया है और सबसे बड़ा पाप लालच है। इसके साथ ही अगर आप दूसरों पर क्रोध करते हैं तो यह भी पाप के बराबर है लेकिन अगर आप क्षमा करते हैं तो आप बहुत बड़ा पुण्य का कार्य करते हैं।

9. धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।

सरलार्थ: कबीर जी अपने अधीर मन को समझाते हुए कहते हैं कि हे मन धीरे-धीरे ही सारे काम होते हैं। माली चाहे किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से भी सींच दे लेकिन उस पर फूल तभी लगेंगे जब उसका वक्त आएगा।

10. बलिहारी गुरू आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार,
मानुष से देवत किया करत न लागी बार।

सरलार्थ: इस दोहे में कबीर जी अपने गुरु से कहते हैं कि हे गुरु मैं आपको धन्यवाद करता हूँ क्योंकि आपने मेरी सौ बार गलतियों को सही किया है और मुझे मनुष्य से देवता के बराबर कर दिया है।

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Kabir Ke Dohe – Best Dohe

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11. कबीरा माला मनिह की, और संसारी भीख,
माला फेरे हरि मिले, गले रहट के देख।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि फेरनी है तो मन की माला फेरो। और कभी भीख मत माँगो। हे मानव, मन में माला फेरते रहने से प्रभु मिल जाते हैं इसलिए गले रुपी चरखे को चलाते रहो अर्थात नाम जाप करते रहो।

12. सुख में सुमिरन ना किया, दुःख में किया याद,
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं जिस आदमी ने सुख के समय प्रभु का सुमिरन नहीं किया और दुख पड़ने पर उसे याद करने लगता है, तो ऐसे स्वार्थी व्यक्ति की प्रभु भी प्रार्थना नहीं सुनते हैं।

13. माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोय,
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय।

सरलार्थ: मिट्टी कुम्हार से कहती है कि आज तू मुझे रौंद रहा है। लेकिन एक दिन मैं तुझे रौंद दूँगी। अर्थात मृत्यु होने पर मनुष्य शरीर मिट्टी में ही मिल जाता है।

14. रात गँवाई सोय के, दिवस गँवाया खाय,
हीरा जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय। – Kabir Ke Dohe

सरलार्थ: कबीर कहते हैं कि रात हम सोकर गँवा देते हैं और दिन हम खाने -पीने में गँवा देते हैं। ईश्वर ने हमें हीरे जैसा जन्म दिया था ताकि हम भक्ति और अच्छे कर्म कर सकें। लेकिन ऐसा न करके हम इसका मूल्य कोड़ी के बराबर कर देते हैं। और फिर हमारी मृत्यु हो जाती है।

15. नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग,
और रसायन छाँड़ि के, नाम रसायन लाग ।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि ज्यादा सोना मृत्यु के बराबर है इसलिए हे कबीर सुबह जल्दी उठो। और दुनिया के भोग – विलास छोड़कर राम नाम की भक्ति करो।

16. कबीरा ते नर अंध है, गुरु को कहते और,
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि ऐसे लोग अंधे हैं जो गुरु का महत्व नहीं समझते। अगर हमारे ईश्वर हमसे रूठते हैं तो गुरु हमें सहारा दे देते हैं। लेकिन अगर गुरु ही हमसे रूठ जाए तो फिर उस व्यक्ति का संसार में कोई सहारा नहीं होता।

17. पाँच पहर धंधे गया, तीन पहर गया सोय,
एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय ।

सरलार्थ: दिन के पाँच पहर आदमी अपने कार्य करता है और तीन पहर सो कर बिताता है। लेकिन अगर एक पहर भी ईश्वर की भक्ति ना करें तो ऐसे व्यक्ति को मोक्ष नहीं मिल पाता है।

18. कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान,
जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ।

सरलार्थ: कबीर खुद से कहते हैं कि इतनी देर तक क्यों सो रहा है। बल्कि उठकर भगवान का कीर्तन कर। क्युँकि एक दिन यमराज तुझे यहाँ से ले जाएंगे और जिस म्यान रुपी शरीर से तू इतना प्रेम करता है वह यहीं धरा रह जाएगा।

19. शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रत्नन की खान,
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ।

सरलार्थ: शाँत और सुशील व्यक्ति संसार में सबसे बड़ा है। और वह बहुमूल्य रत्नों की खान के समान है। वास्तव में संतुष्टि और सहनशीलता ही तीनो लोकों की सम्पति के बराबर होते हैं।

20. माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर,
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ।

सरलार्थ: मनुष्य का ना तो सांसारिक मोह मरता है और न ही उसकी इच्छाएँ मरती हैं। लेकिन उसका शरीर एक दिन अवश्य मर जाता है। साथ ही मनुष्य की उम्मीद और लालच भी कभी नहीं मरते।

Saint Kabir Ke Dohe

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21. जो तोकु कांटा बुवे, ताकि बोय तू फूल,
तोकू फूल के फूल है, बाकू है त्रिशूल ।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि जो तुम्हारे लिए कांटे बोता है उसके लिए फूल बो दीजिये। जब आप चलोगे तो आपको फूल मिलेंगे लेकिन जब वह दुष्ट व्यक्ति चलेगा तो उसके बोये कांटे उसके ही पैरों में चुभ जायेंगे।

22. दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ।

सरलार्थ: मनुष्य का जन्म बहुत दुर्लभ है और यह देह बार-बार नहीं मिलती है। इसलिए इसका उचित उपयोग कीजिये। जिस तरह पेड़ से सूखा पत्ता झड़ जाता है और फिर वह दुबारा पेड़ पर नहीं लगाया जा सकता उसी प्रकार से यह शरीर हमें दोबारा नहीं मिलेगा।

23. आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर,
एक सिंहासन चढ़ी चले, एक बंधे जात जंजीर।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि जो इस दुनिया में आया है वह जाएगा भी जरूर। फिर चाहे वह राजा हो, भिखारी हो या कोई फकीर हो। अच्छा कर्म करने वाले सिंहासन पर जाएंगे जबकि बुरे कर्म करने वालों को जंजीर से बांधकर ले जाया जाएगा।

24. माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय,
भगता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय । (Sant Kabir Ke Dohe)

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि मोह माया और छाया एक जैसी ही होती हैं। दोनों हर किसी के साथ रहती हैं। लेकिन जैसे प्रकाश से छाया दूर हो जाती है वैसे ही भक्ति के प्रकाश से माया भी दूर हो जाती है।

25. आया था किस काम को, तू सोया चादर तान,
सुरत संभाल ए गाफिल, अपना आप पहचान।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि हे मनुष्य तू किस काम से इस दुनिया में आया था अर्थात मोक्ष के लिए भक्ति करने आया था। लेकिन यहाँ आकर चादर तानकर सो गया है। इसलिए आलस्य की नींद से जाग और भक्ति की किताबें पढ़ कर आत्मज्ञान प्राप्त कर।

26. क्या भरोसा देह का, बिनस जात छिन मांह,
साँस-सांस सुमिरन करो और यत्न कुछ नांह।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि इस मनुष्य की देह का क्या भरोसा है। यह तो क्षण भर में ही आपसे छिन सकती है। इसलिए हर साँस में आपको प्रभु का सुमिरन करना चाहिए। इस जगत से मुक्ति प्राप्त करने का और कोई भी यतन (मार्ग) नहीं है।

27. काल करे सो आज कर, आज करे सो अब,
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ।

सरलार्थ: जो काम आप कल करना चाहते हैं उसे आज ही कर डालिए और जो आज करना चाहते हैं उसे अभी कर डालिए। क्योंकि एक ही पल में सब कुछ नष्ट हो जाता है और फिर आप उस काम को नहीं कर पाते हैं।

28. माँगन मरण समान है, मित माँगो कोई भीख,
माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की सीख ।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि माँगना तो मरने के समान है। इसलिए कभी भी किसी के आगे भीख मत माँगो। माँगने से अच्छा है कि मर जाइए। यही सच्चे गुरु की शिक्षा है।

29. जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग,
कहे कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि जहाँ मनुष्य में अहम् (Ego) आ जाता है वहीं पर वह विपदा से घिर जाता है। और जब वह प्रभु पर संदेह करता है मानो वह रोगों से ग्रस्त हो जाता है। इसलिए जब तक आप अपने अहम् और संशय को नहीं मिटाओगे तब तक आप इन रोगों से मुक्ति नहीं पा सकते।

30. गारी ही सों ऊपजे, कलह, कष्ट और मींच,
हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच ।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि गाली से झगड़ा, कष्ट और दुश्मनीउत्पन्न होते हैं। इसलिए अगर आप दूसरों की गाली पर ध्यान न देकर वहाँ से चले जाते हैं तो आप साधु हैं। लेकिन अगर आप भी गाली देने लगते हैं तो आप नीच व्यक्ति की तरह बन जाते हैं।

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संत कबीर के दोहे – Kabir Ke Dohe

31. दुर्बल को न सताइए, जाकि मोटी हाय,
बिना जीव की हाय से, लोहा भस्म हो जाय ।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि कभी भी किसी कमजोर व्यक्ति को नहीं सताना चाहिए। क्युँकि उसकी बद्दुआ (हाय) बहुत ही बलवान होती है। बेशक वह मुंह से कुछ भी ना बोले लेकिन उसके मन की हाय से लोहा भी भस्म हो जाता है।

32. हीरा वहाँ न खोलिये, जहाँ कुंजड़ों की हाट,
बांधो चुप की पोटरी, लागहु अपनी बाट ।

सरलार्थ: संत कबीर कहते हैं कि आप अपनी हीरों की पोटली उस जगह पर मत खोलिए जहाँ पर चोर लोग रहते हैं। अर्थात आपको मूर्ख के सामने ज्ञान की बातें नहीं करनी चाहिए। ऐसी जगह पर आप चुप ही रहिए और अपने रास्ते पर निकल जाइए।

33. कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि कर तन हार,
साधु वचन जल रूप, बरसे अमृत धार ।

सरलार्थ: कबीर जी के अनुसार कड़वे वचन बहुत बुरे होते हैं। ये मनुष्य के पूरे वजूद को जलाकर राख कर देते हैं। लेकिन अच्छे वचन ठंडे पानी की तरह होते हैं। जो अमृत की तरह अग्नि को भी शांत कर देते हैं।

34. जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय,
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय ।

सरलार्थ: इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि अगर आपका मन शीतल है तो संसार में आपका कोई भी दुश्मन नहीं होगा। अगर आप अपना अहम त्याग दें तो हर कोई आपकी सहायता करना चाहेगा।

35. दान दिए धन न घटे, नदी ने घटे नीर,
अपनी आँखें देख लो, यों क्या कहे कबीर।

सरलार्थ: कबीर जी के अनुसार दान देने से कभी भी धन घटता नहीं है। जिस तरह नदी का पानी लगातार बहता रहता है लेकिन नदी सूखती नहीं है। चाहे तो आप यह बात अपनी आंखों से देख लो इससे ज्यादा मैं (कबीर ) क्या कहुँ। Kabir Ke Dohe for Motivation.

36. दस द्वारे का पिंजरा, तामे पंछी का कौन,
रहे को अचरज है, गए अचम्भा कौन।

सरलार्थ: इस दोहे का अर्थ है कि हमारा शरीर दस दरवाजों वाला पिंजरा है। तथा हमारी आत्मा उसमें रहने वाला पंछी है। जब तक वह इस शरीर में रहता है तो भी हमें आश्चर्य होता है। लेकिन जब आत्मा इस शरीर से चली जाती है तो भी अचंभा लगता है। अर्थात शरीर का कोई भरोसा नहीं है और हमारी मृत्यु कभी भी हो सकती है।

37. ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोय,
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ।

सरलार्थ: हमेशा ऐसी बात करनी चाहिए जिससे अहंकार न झलके। ऐसी बातें बोलिए जिससे दूसरे लोगों को शांति मिले और आपका दिल भी शांति रहे।

38. मैं रोऊँ जब जगत को, मोको रोवे न होय,
मोको रोवे सोचना, जो शब्द बोय की होय ।

सरलार्थ: इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि मैं सारे संसार की चिंता करता रहता हूँ। लेकिन संसार को मेरी चिंता नहीं है। लेकिन यह तो मुझे ही सोचना होगा कि जिस तरह का आचरण मैं करता हूँ, लोग भी वैसा ही आचरण मेरे साथ करेंगे।

39. सोवा साधु जगाइए, करे नाम का जाप,
यह तीनों सोते भले, साकित, सिंह और साँप ।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि अगर आप किसी साधु को सोते हुए से जगा देते हैं तो वह उठकर राम नाम का जाप करने लगता है। लेकिन अगर कामी, शेर और साँप को जगाते हैं तो यह तीनों आपका नुकसान करने लगेंगे। इसलिए इन्हें सोने ही दीजिए।

40. अवगुण कहूँ शराब का, आपा अहमक साथ,
मानुष से पशुआ करे दाय, गाँठ से खात ।

सरलार्थ: इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि मैं शराब का क्या अवगुण बताऊँ। यह आपको अहंकारी के साथ-साथ दुष्ट भी बना देता है। यह मनुष्य को पशु बना देता है और आपके संचित धन को धीरे-धीरे खा जाता है।

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Kabir Ke Dohe (संत कबीर के दोहे)

41. बाजीगर का बांदरा, ऐसा जीव मन के साथ,
नाना नाच दिखाय कर, राखे अपने साथ ।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि मनुष्य का मन किसी बाजीगर के बंदर की तरह है। वह मनुष्य को तरह-तरह के नाच नचाता है। लेकिन उसे अपने साथ ही रखता है।

42. बैध मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार,
एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम अधार ।

सरलार्थ: इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि वैद्य भी मर जाता है, रोगी भी मर जाता है और वास्तव में संसार का हर व्यक्ति ही मर जाता है। लेकिन वह व्यक्ति कभी नहीं मरता जिसके आधार राम है। अर्थात राम भक्त मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।

43. हद चाले तो मानव, बेहद चले सो साध,
हद बेहद दोनों तजे, ताको भता अगाध ।

सरलार्थ: अगर कोई एक हद तक भक्ति करता है तो वह मानव है, अगर कोई हद से ज्यादा भक्ति करता है तो वह साधु है। लेकिन जो हद और बेहद से आगे निकलकर भक्ति करे, तो ऐसी भक्ति को ही आगाध भक्ति कहा जा सकता है।

44. राम रहे बन भीतरे, गुरु की पूजा ना आस,
रहे कबीर पाखण्ड सब, झूठे सदा निराश।

सरलार्थ: जो लोग राम को सिर्फ मंदिर में रखते हैं और मन के भीतर नहीं रखते, जो गुरु की ना पूजा करते हैं न उस पर श्रद्धा रखते हैं, ऐसे पाखंडी लोग अपनी झूठी भक्ति की वजह से हमेशा निराश ही रहते हैं।

45. अटकी भाल शरीर में, तीर रहा है टूट,
चुम्बक बिना निकले नहीं, कोटि पटन को फूट ।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि जिस शरीर में भाला या कोई टूटा हुआ तीर लगा होता है, वह बिना चुंबक (शक्ति) नहीं निकलता। अर्थात हमारे अंदर जो दुर्गुण होते हैं, वे बिना भक्ति के बाहर नहीं निकल सकते।

46. कबीरा जपना काठ की, क्या दिखावे मोय,
ह्रदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या होय ।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि यह लकड़ी से बनी हुई माला (जपनी) मुझे क्या दिखा रहे हो। जब तक आपका मन राम नाम का जाप नहीं करेगा इस माला को फेरने से क्या होगा। Great Poet- Kabir Ke Dohe

47. पतिव्रता मैली, काली, कुचल, कुरूप,
पतिव्रता के रूप पर, वारो कोटि सुरूप ।

सरलार्थ: पतिव्रता चाहे मैले कपड़े वाली हो, काले रंग की हो, उसकी चाल भी बेढंग हो या, और वह देखने में सुंदर भी न हो लेकिन ऐसी पतिव्रता स्त्री पर हजारों रूपवतियों को कुर्बान किया जा सकता है।

48. जाके जिव्या बंधन नहीं, हृदय में नहीं साँच,
वाके संग न लागिये, खाले वटिया काँच ।

सरलार्थ: जिसकी जीभ पर कोई बंधन नहीं है अर्थात कुछ भी अपशब्द बोलता है, जिसके हृदय में सच भी नहीं है, ऐसे दुष्ट व्यक्ति के साथ कभी न रहिए। इससे अच्छा तो मुट्ठी भर कांच खाना है।

49. तीरथ गये ते एक फल, संत मिले फल चार,
सत्गुरु मिले अनेक फल, कहें कबीर विचार ।

सरलार्थ: तीर्थ जाने से एक फल मिलता है, संत के पास जाने से चार फल मिलते हैं, लेकिन अगर सतगुरु मिल जाए तो अनेकों फल मिलते हैं।

50. सुमरण से मन लाइए, जैसे पानी बिन मीन,
प्राण तजे बिन बिछड़े, संत कबीर कह दीन ।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि आपके और आपके ईश्वर सुमिरन में इस तरह का नाता होना चाहिए जैसा मछली का पानी के साथ होता है। यदि मछली को पानी से बाहर निकाल दिया जाए तो उसके प्राण निकल जाते हैं। ऐसे ही अगर आप सुमिरन न करें तो आपके भी मानों प्राण निकल जाते हों।

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Kabir Ke Dohe – कबीर के दोहे

51. कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय,
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय ।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि अब मेरे पास कहने सुनने के लिए कुछ नहीं रहा है। एक लहर आ रही है और दूसरी जा रही है। लेकिन सब लहरें इस भवसागर में समा रही हैं। अर्थात एक मनुष्य पैदा हो रहा है तो दूसरा मृत्यु को प्राप्त हो रहा है। तथा यह आवागमन का चक्कर चला ही जा रहा है।

52. वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल,
बिना कर्म का मानव, फिरैं डांवाडोल ।

सरलार्थ: अगर आपके पास कोई वस्तु है लेकिन उसका ग्राहक नहीं है तो भी घबराइए नहीं। आप वस्तु बनाते रहिए और यह आपके लिए अनमोल खजाना है। क्युँकि बिना कर्म करने वाला व्यक्ति सिर्फ डाँवाडोल ही फिरता रहता है।

53. कली खोटा जग आंधरा, शब्द न माने कोय,
चाहे कँह सत आइना, जो जग बैरी होय ।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि कलियुग ने सारे संसार में अंधेरा सा फैला दिया है। यहाँ पर कोई भी संतों की बात नहीं मानना चाहता। अगर संत किसी को आइना दिखा दे तो वह संत को ही अपना दुश्मन मान लेता है।

54. समझाये समझे नहीं, पर के साथ बिकाय,
मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाय ।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि हे मानव मैं तुझे समझा रहा हूँ लेकिन फिर भी तू समझ नहीं रहा है। और तू कामवासना के मार्ग पर चला जा रहा है। मैं तुझे भक्ति की तरफ खींच रहा हूँ लेकिन तू अपनी मृत्यु की तरफ बढ़ रहा है।

55. हंसा मोती विण्न्या, कुंचर थार भराय,
जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय ।

सरलार्थ: हँस मोती चुनते हैं जबकि कुंज पक्षी तिनके चुनते हैं। इसी प्रकार ज्ञान के अभाव में कुछ मनुष्य जीवन भर इधर-उधर भटकते रहते हैं। Bhaktikaal Poet: Kabir Ke Dohe.

56. कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय,
भक्ति करे कोई सूरमा, जाति वरन कुल खोय ।

सरलार्थ: कामी, क्रोधी और लालची मनुष्य से कभी भी भक्ति नहीं हो सकती है। भक्ति करना तो किसी साहसी व्यक्ति का ही काम है। क्योंकि इसमें जाति, वर्ण और कुल का भी बलिदान देना पड़ता है।

57. जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय ,
सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाहिं जाय।

सरलार्थ: जागते हुए भी आप समाधि में रहिए और जब आपके पास सुख साधन हो तब भी भक्ति की ज्योति जगाये रखिए। अपने ईश्वर से भक्ति की डोर हमेशा जोड़े रखिए और इसकी तार कभी टूटनी नहीं चाहिए।

58. साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहे, थोथ देइ उड़ाय।

सरलार्थ: साधु पुरुष को ऐसा होना चाहिए जैसे चावल साफ़ करने का सूप होता है। वह चावलों को तो रख लेता है लेकिन कूड़े – करकट को उड़ा देता है। उसी प्रकार सच्चा साधु अज्ञान के कर्कट को हटाकर आपको ज्ञान दे देता है।

59. लगी लग्न छटे नाहिं, जीभ चोंच जरि जाय,
मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय।

सरलार्थ: चकोर पक्षी जलते हुए अंगारे को भी खाने की कोशिश करता है फिर चाहे उसकी जीभ ही क्यूँ न जल जाए। कबीर जी कहते हैं कि आखिर अंगारे में ऐसा कौन सी मिठास होती है कि चकोर उसे खाने की कोशिश करता है। अर्थात हमें व्यसनों का लालच नहीं करना चाहिए।

60. भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाय,
कह कबीर कुछ भेद नाहिं, कहां रंक कहां राय।

सरलार्थ: भक्ति तो खेल के मैदान की गेंद की तरह होती है जिससे कोई भी आकर खेल सकता है। भक्ति कोई भेदभाव नहीं करती। चाहे भिखारी हो या कोई रईस हो कोई भी व्यक्ति भक्ति कर सकता है।

Best 300 Kabir Ke Dohe

61. घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार,
बाल सनेही सांईयाँ, आवा अंत का यार।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि हे ईश्वर अब आप रहस्य का पर्दा हटाकर मुझे दर्शन दीजिए। आप तो अपने बच्चों को प्रेम करने वाले हैं। अब मेरा अंत समय निकट आ गया है इसलिए मुझे दर्शन दीजिए।

62. कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाए,
टूट एक के कारने, स्वान घरै घर जाए।

सरलार्थ: धीरज रखने के कारण हाथी धीरे-धीरे एक मन भोजन भी खा जाता है। लेकिन घर के एक आदमी के अधीर होने के कारण सारा घर ही बर्बाद हो जाता है। इसलिए हमें हमेशा धैर्य से काम लेना चाहिए।

63. ऊँचे पानी न टिके, नीचे ही ठहराए,
नीचा हो सो भरिये पिए, ऊँचा प्यासा जाए।

सरलार्थ: संत कबीर कहते हैं कि ऊंचाई पर पानी ज्यादा देर नहीं टिकता है। इसलिए मनुष्य को विनम्र होकर छोटा ही बने रहना चाहिए। क्युँकि जो पानी नीचे होता है उससे सब लोग अपनी प्यास बुझा लेते हैं। लेकिन बांध का ऊँचा पानी किसी की प्यास नहीं बुझाता।

64. सबते लघुताई भली, लघुता ते सब होय,
जौसे दूज का चन्द्रमा, शीश नवे सब कोय।

सरलार्थ: व्यक्ति को हमेशा विनम्र होना चाहिए। और खुद को कभी भी बड़ा नहीं समझना चाहिए। जिस तरह से दूज का चन्द्रमा आधे से भी कम होता है लेकिन सब उसे प्रणाम करते हैं।

65. अन्तर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार,
जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार।

सरलार्थ: हे अंतर्यामी भगवान आप ही मेरी आत्मा के आधार हो। अगर आप ही मेरा हाथ छोड़ दोगे तो मुझे इस भवसागर से कौन पार उतरेगा। Kabir Ke Dohe For Motivation.

66. मैं अपराधी जन्म का, नख-सिख भरा विकार,
तुम दाता दुःख भंजना, मेरी करो सम्हार।

सरलार्थ: हे प्रभु, मैं तो जन्म से ही अपराधी हूँ। मेरे सिर से लेकर पैर तक विकार ही भरे हुए हैं। लेकिन आप तो दुखों को नष्ट करने वाले हो इसलिए हमेशा मेरी रक्षा करें।

67. प्रेम न बड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय,
राजा- प्रजा जोहि रुचें, शीश देई ले जाय।

सरलार्थ: प्रेम ना तो किसी खेत में उपजता है और ना ही हाट – बाजार में बिकता है। यह राजा या प्रजा में से किसी को भी हो सकता है। लेकिन सच्चे प्रेम की कीमत सिर को कटा कर चुकाई जाती है।

68. छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार,
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार।

सरलार्थ: ईश्वर क्षीरसागर की तरह अथाह है, उसका व्यवहार जल की तरह निर्मल है। वह हँस की तरह उज्जवल साधु है तथा जगत में सत्य को जाने वाला है।

69. ज्यों टिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग,
तेरा सांई तुझमें है, बस जाग सके तो जाग।

सरलार्थ: जिस तरह तिलों में तेल होता है और चकमक पत्थर में आग छुपी होती है, उसी प्रकार से भगवान आपके अंदर ही हैं। बस खुद के आत्मज्ञान को जगाने की जरुरत है।

70. जा करण ढ़ूँढ़िया, सो तो घट ही माहिं,
परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं।

सरलार्थ: जिसे प्रभु को आप पूरी दुनिया में ढूँढ रहे हैं, वह तो आपके पास ही है। लेकिन आपकी आँखों पर मोह – माया का पर्दा पड़ा होता है। इसलिए वह आपको दिखाई नहीं देता।

Kabir Ke Dohe – Top 300 Dohe

71. प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय,
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय।

सरलार्थ: जो मानव सच्चे प्रेम का प्याला पीते हैं, उन्हें अपने सिर का भी बलिदान देना पड़ सकता है। लेकिन जो लालची हैं, वे अपने सिर को कभी नहीं कटवा सकते। बस वे दिखावे के लिए प्रेम का नाम लेते हैं।

72. सुमिरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग,
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग।

सरलार्थ: प्रभु भक्ति में आप ऐसे ही लीन रहिए, जिस प्रकार सारंगी में संगीत रहता है। और ईश्वर को कभी भी भुलाना नहीं चाहिए। जिस तरह सारंगी के टूटने पर ही उसका संगीत खत्म होता है। उसी प्रकार से मृत्यु पश्चात ही सुमिरन बंद होना चाहिए।

73. सुमिरत सुरत जगाय कर, मुख के कुछ न बोल,
बाहर का पट बंद कर, अंदर का पट खोल।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि मन अंदर भक्ति जगाइए। और मन ही मन प्रभु का नाम लेते रहिए। मुँह से कुछ भी बोलने की जरूरत नहीं है। आप बाहर के दरवाजे बंद करके अंदर के दरवाजे खोलिये।

74. जबही नाम हिरदे घरा, भया पाप का नाश,
मानो चिंगरी आग की, जरी पुरानी घास।

सरलार्थ: जब मैंने ईश्वर का सच्चे मन से नाम लिया तो मेरे सारे डर खत्म हो गए। जिस तरह एक चिंगारी घास को जला देती है। उसी तरह से प्रभु के नाम ने मेरे सारे डरों को जला दिया।

75. नहीं शीतल है चन्द्रमा, हिम नहीं शीतल होय,
कबीरा शीतल संत जन, नाम सनेही सोय।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि न तो चंद्रमा शीतल होता है और न ही बर्फ शीतल होती है। वास्तव में सबसे शीतल संत लोग होते हैं। जो सबसे स्नेह के साथ बात करते हैं। Verses: Kabir Ke Dohe

76. आहार करे मन भावता, इन्दी किये स्वाद,
नाक तलक पूरन भरे, तो का कहिए प्रसाद।

सरलार्थ: लालची व्यक्ति मनपसंद खाना खाता है और इंद्रियों के स्वाद में डूबा रहता है। अगर उसे प्रसाद भी दिया जाए तो उसे गले और नाक तक भर लेता है। इस प्रकार का लोभी व्यक्ति ईश्वर की क्या भक्ति करेगा।

77. जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय,
नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय।

सरलार्थ: जब तक मनुष्य इस संसार के मोह बंधनों से बँधा रहेगा, तब तक वह सच्ची भक्ति नहीं कर सकता है। इसलिए कबीर जी कहते हैं कि सांसारिक बंधनों को तोड़कर आप ईश्वर से अपना अटूट बंधन जोड़ो।

78. जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम,
माता प्यारा बारका, भगति प्यारा नाम।

सरलार्थ: जिस तरह पनिहारी को अपने पानी से प्यार होता है, लोभी व्यक्ति को पैसे से प्यार होता है, माता को बालक से प्यार होता है उसी प्रकार से आप अपनी भक्ति से प्यार कीजिए।

79. दिल का मरहम ना मिला, जो मिला सो गर्जी,
कह कबीर आसमान फटा, क्योंकर सीवे दर्जी।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि मुझे दिल के जख्मों का कोई मरहम नहीं मिला। जो भी व्यक्ति मिला वह खुदगर्ज ही था। लेकिन संसार ऐसा ही है। अगर आपके सिर पर मुसीबत का आसमान फट जाए तो दर्जी भला उसे क्यूँ सियेगा।

80. बानी से पचानिये, साम चोर की घात,
अंदर की करनी से सब, निकले मुँह कई बात।

सरलार्थ: संत कबीर कहते हैं कि आप दुष्ट लोगों को उनकी बातों से पहचान सकते हैं। उनके अंदर जो भरा होता है वह कभी ना कभी उनके होंठों तक आ ही जाता है।

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81. दया कौन पर कीजिये, का पर निर्दय होय,
सांई के सब जीव हैं, कीरी कुंजर दोय।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि आपको किस पर दया करनी चाहिए और किस पर नहीं करनी चाहिए इसका फैसला कैसे करें। वास्तव में सब लोगों को ईश्वर ने ही बनाया है, चाहे वे अच्छे हों या बुरे। इसलिए हमें सब पर ही दया करनी चाहिए।

82. जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाय,
प्रेम गली अति सँकरी, ता में दो न समाय।

सरलार्थ: संत कबीर कहते हैं कि जब मैं था तो गुरु नहीं थे और अब मैं जा रहा हूँ तो मुझे गुरु मिल गए हैं। इसलिए भक्ति के प्रेम की गली बहुत संकरी है और उसमें दो लोग एक साथ कभी नहीं समा सकते हैं। इसलिए समय रहते ही गुरु ढूँढ लेना चाहिए।

83. छिन ही चढ़े छिन ही उतरे, सो तो प्रेम न होय,
अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम कहावे सोय।

सरलार्थ: जो एक क्षण में हो जाए और दूसरे क्षण में खत्म हो जाए, उसे प्रेम नहीं कहते। प्यार का असली अर्थ तो जिंदगी भर प्रेम के पिंजरे में कैद रहना होता है।

84. जब लगि भगति सकाम है, तब लग निष्फल सेव,
कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामी तज देव।

सरलार्थ: जब आपकी भक्ति किसी इच्छा से जुड़ी हुई है तब तक वह निष्काम भक्ति नहीं हो सकती है। तथा आपको उसका कोई फल नहीं मिलेगा। जब आप फल की इच्छा त्याग देंगे तभी उसे सच्ची भक्ति कह सकते हैं।

85. फूटी आँख विवेक की, लखे ना संत असंत,
जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महंत।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि आजकल लोगों के विवेक की आंखें फूट चुकी हैं। उन्हें यह भी पता नहीं है कि कौन संत है और कौन दुष्ट है। जिन लोगों के साथ दस – बीस लोग खड़े हैं लोग उन्ही को महान मान रहे हैं।

86. मार्ग चलते जो गिरा, ताकों नाहिं दोष,
यह कबिरा बैठा रहे, तो सिर करड़े दोष।

सरलार्थ: जो रास्ते पर चलता हुआ गिर जाता है, उसे कोई दोष नहीं है। क्युँकि कम से कम वह प्रयत्न तो कर रहा है। लेकिन जो व्यक्ति घर पर ही बैठा रहता है उसके दोष बहुत ही निंदनीय हैं। Inspiring Couplets: Kabir Ke Dohe.

87. दया भाव हृदय नहीं, ज्ञान थके बेहद,
ते नर नरक ही जायेंगे, सुनि- सुनि साखी शब्द।

सरलार्थ: जिनके दिल में कोई दया भाव नहीं है लेकिन ज्ञान बाँटते थकते नहीं है, ऐसे लोग ही नरक ही जाते हैं। और यह हर धर्म ग्रंथ में लिखा हुआ है।

88. जहाँ काम तहाँ नाम नाहिं, जहाँ नाम नहिं वहाँ काम,
दोनों कबहूँ नहिं मिले, रवि रजनी इक धाम।

सरलार्थ: जहाँ काम (वासना) है वहाँ पर नाम (ईश्वर) नहीं हो सकता, और जहाँ नाम है वहाँ पर काम नहीं हो सकता। दोनों उसी तरह से नहीं मिल पाते हैं जिस तरह से सूर्य कभी रात से नहीं मिलता है।

89. संत ही में संत बांटई, रोटी में ते टूक,
कहे कबीर ता दास को, कबहूँ न आवे चूक।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि संतों की संगति से आपको शिक्षा ही मिलती है जैसे रोटी से आपको रोटी का टुकड़ा ही मिलता है। इसलिए हमें संतों की संगति करनी चाहिए। इससे हम जीवन में गलती नहीं करेंगे।

90. काया काठी काल घुन, जतन-जतन सो खाय,
काया वैध ईश बस, मर्म न काहू पाय।

सरलार्थ: यह शरीर लकड़ी की तरह है, जिसे समय का गुण धीरे-धीरे खा जाता है। यह जीवन – मरण ईश्वर के हाथ में है और इसके भेद को कोई भी नहीं जान पाया है।

Top 300 Kabir Ke Dohe

91. सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह,
शब्द बिना साधु नहीं, द्रव्य बिना नहीं शाह।

सरलार्थ: भक्ति का सागर ही असली सुख दे सकता है और इसकी कोई भी थाह नहीं पा सकता। जिस प्रकार से सुमिरन के बिना कोई साधु नहीं होता और पैसे के बिना कोई शाह (अमीर) नहीं होता, उसी प्रकार भक्ति के बिना सुख भी नहीं होता।

92. जहँ गाहक ता हूँ नहीं, जहाँ मैं गाहक नाँय,
मूरख यह भरमत फिरे, पकड़ शब्द की छाँय।

सरलार्थ: जहाँ ग्रहण करने योग्य कोई भी ज्ञान नहीं है, मानव वहीं जा रहा है। इसलिए कबीर कहते हैं कि इस तरह से भटकना छोड़कर राम नाम का जाप करना चाहिए।

93. कहता तो बहुत मिला, गहता मिला न कोय,
सो कहता वह जान दे, जो नहिं गहता होय।

सरलार्थ: बड़ी-बड़ी बातें करते हुए तो बहुत सारे लोग मिल जाते हैं लेकिन उन पर आचरण करने वाला कोई भी नहीं मिलता। इसलिए जो सिर्फ बड़ी बातें कहता हो और उन पर आचरण न करता हो उसे जाने दो। उसकी बातें ना सुनो।

94. तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर,
तब लग जीव जग कर्मवश, ज्यों लग ज्ञान न पूर।

सरलार्थ: तारे तभी तक जगमग करते हैं जब तक सूरज नहीं उगता है। इसी तरह मनुष्य को जीवन के कार्य लुभावने लगते हैं जब तक आत्म – ज्ञान का सूर्य जागृत नहीं होता।

95. बाहर क्या दिखलाए, अनन्तर जपिये राम,
कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि दुनिया के आगे क्या दिखावा कर रहे हो। अगर जपना ही है तो मन में राम नाम जपो। क्युँकि दुनिया को दिखाकर तुम कौन सा कार्य करवा लोगे या कौन सा धन कमा लोगे।

96. फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम,
कहे कबीर सेवक नहीं, चहै चौगुना दाम।

सरलार्थ: संत कबीर कहते हैं कि जो मनुष्य सिर्फ फल के लिए आपकी सेवा कर रहा हो और मन लगाकर काम नहीं कर रहा हो, वह कभी भी सच्चा सेवक नहीं हो सकता और वह आपको चार गुणा महँगा ही पड़ेगा।

97. तेरा साँई तुझमें, ज्यों पहुपन में बास,
कस्तूरी का हिरन ज्यों, फिर-फिर ढूँढत घास।

सरलार्थ: आपका ईश्वर आपके अंदर ही है जैसे कस्तूरी हिरन के अंदर ही होती है। लेकिन वह जंगल -जंगल उसे ढूंढता फिरता है। उसी तरह से लोग भी बाहर ईश्वर को बाहर ढूँढ़ते हैं।

98. कथा-कीर्तन कुल विशे, भवसागर की नाव,
कहत कबीरा या जगत में नाहिं और उपाव।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि कथा और कीर्तन से ही आप भव सागर की नाव को पार लगा पाओगे। इसके अलावा इस जगत में और कोई भी उपाय नहीं है। Kabir Ke Dohe – Most popular verses.

99. कबीरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा,
कै सेवा कर साधु की, कै गोविन्द गुन गा।

सरलार्थ: संत कबीर कहते हैं कि यह शरीर अब जाने ही वाला है इसलिए इस से कुछ अच्छा कार्य ले लो। बहुत सारे साधुओं की सेवा करो और ईश्वर की बहुत सी भक्ति करो।

100. तन बोहत मन काग है, लक्ष योजन उड़ जाय,
कबहु के धर्म अगम दयी, कबहुं गगन समाय।

सरलार्थ: कबीर जी के अनुसार मनुष्य का मन एक कौवे की तरह है। जो बहुत दूर-दूर उड़ जाता है। कभी वह वृक्ष पर बैठ जाता है तो कभी आसमान में खो जाता है। अर्थात मन बेहद चंचल है।

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Kabir Ke Dohe For Motivation

Kabir Ke Dohe
Kabir Ke Dohe

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101. आस पराई राख्त, खाया घर का खेत,
औरन को था बोधता, मुख में पड़ रेत।

सरलार्थ: दूसरों से उम्मीद रखकर मनुष्य अपना खेत खाली छोड़ देता है यह सोचकर कि दूसरे इसकी रोपाई कर देंगे। लेकिन दूसरों की राह देखते हुए उसका खेत उजड़ जाता है और उसके मुंह में मानो रेत पड़ जाती है। अर्थात अपना काम हमें स्वयं करना चाहिए।

102. सोना, सज्जन, साधु जन, टूट जुड़ै सौ बार,
दुर्जन, कुम्भ, कुम्हार के, ऐके धका दरार।

सरलार्थ: सोना, सज्जन और साधु – ये सौ बार टूट कर भी जुड़ जाते हैं। लेकिन दुर्जन और कुम्हार का घड़ा एक ही धक्के में टूट जाते हैं और दुबारा कभी नहीं जुड़ते।

103. सब धरती कारज करूँ, लेखनी सब बनराय,
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरुगुन लिखा न जाय।

सरलार्थ: सारी धरती को अगर मैं कागज बना लूँ , और सारे वनों को काटकर कलम बना लूँ, सात समुद्रों के पानी की स्याही बना लूँ तो भी मैं गुरु की महिमा का वर्णन नहीं कर पाउँगा।

104. बलिहारी वा दूध की, जामे निकसे घीव,
घी साखी कबीर की, चार वेद का जीव।

सरलार्थ: उस दूध को नमन है जिसके अंदर घी छुपा होता है। इसी प्रकार से चारों वेदों के अंदर जीवन का सार छुपा है जो कबीर का सच्चा मित्र है।

105. आग जो लागी समुद्र में, धुआं न प्रकट होय,
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय।

सरलार्थ: समुद्र के अंदर आग लगी हो तो भी धुँआ प्रकट नहीं होता। जिस व्यक्ति पर मुसीबत पड़ती है उसी को पता चलता है कि कितना दर्द है। (Kabir Ke Dohe -Bhaktikaal Poet).

106. साधु गाँठि न बाँधई, उदर समाता लेय,
आगे-पीछे हरि खड़े, जब भोगे तब देय।

सरलार्थ: साधु कभी भी गाँठ नहीं बाँधता बल्कि जितनी भूख होती है उतना ही लेता है। उसके आगे पीछे हमेशा ईश्वर होते हैं और जितना वे देते हैं वह उसी का भोग करता है।

107. घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार,
बाल सने ही सांईया, आवा अंत का यार।

सरलार्थ: इस रहस्य का परदा खोलकर मुझे दर्शन दीजिए। आप तो अपने बच्चों के रखवाले हो अब मेरा अंत आ गया है इसलिए हे प्रभु मुझे दर्शन दीजिए।

108. कबिरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय,
जाके विषय विष भरा, दास बंदगी होय।

सरलार्थ: कबीर ही इतनी सुबह जाग रहा है और सारा संसार सो रहा है। संसार के जो लोग विषय वासनाओं से भरे हैं वह ईश्वर की बंदगी कैसे करेंगे।

109. ऊँचे कुल में जामिया, करनी ऊँच न होय,
सौरन कलश सुरा भरी, साधु निन्दा सोय।

सरलार्थ: कुछ लोग ऊँचे कुल में तो जन्म ले लेते हैं लेकिन उनके कर्म ऊंचे नहीं होते। वे सोने के कलशो में शराब भरकर पीते हैं और सुख की नींद सोते रहते हैं।

110. सुमरण की सुब्यों करो, ज्यों गागर पनिहार,
होले-होले सुरत में, कहैं कबीर विचार।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि सुमिरन ऐसे करना चाहिए जैसे पनिहारी अपनी गागर में पानी भरती है। अर्थात उसकी गागर में धीरे-धीरे पानी भरता जाता है और वह पूरी भर जाती है। इसी तरह से हमें अपने मन में राम का गुणगान करना चाहिए। एक दिन हमारा पूरा मन भी राम नाम से भर जाएगा।

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Kabir Ke Dohe Full of Life Philosophy

111. सब आए इस एक में, डाल-पात फल-फूल,
कबिरा पीछा क्या रहा, गह पकड़ी जब मूल।

सरलार्थ: कबीर कहते हैं कि डाल, पत्ते, फल और फूलों को एक-एक करके क्यूँ उखाड़ रहे हो। सीधे जड़ से पकड़ो और पूरा पौधा ही आपके हाथ में आ जाएगा। अर्थात सिर्फ राम नाम की शरण में जाओ, इससे पूरा संसार ही आपकी मुट्ठी में आ जाएगा।

112. जो जन भीगे रामरस, विगत कबहूँ ना रुख,
अनुभव भाव न दरसते, ना दुःख ना सुख।

सरलार्थ: जो व्यक्ति राम की भक्ति के रस में भीग जाता है और उससे कभी भी अपना मुँह नहीं मोड़ता वह ऊपर उठ जाता है। उसके बाद उसे सुख और दुख का अनुभव ही नहीं होता बल्कि हमेशा राम की भक्ति में खोया रहता है।

113. सिंह अकेला बन रहे, पलक-पलक कर दौर,
जैसा बन है आपना, तैसा बन है और।

सरलार्थ: कबीर कहते हैं कि शेर अकेला ही जंगल में रहता है और वह एक जंगल से दूसरे जंगल जाता रहता है। वह देखता है कि जैसे उसका पहला जंगल था वैसे ही बाकी जंगल भी हैं। अर्थात सब धर्म एक जैसे ही हैं और सब एक ही ईश्वर की तरफ इशारा करते हैं।

114. यह माया है चूहड़ी, और चूहड़ा कीजो,
बाप-पूत उरभाय के, संग ना काहो केहो। (Kabir Ke Dohe).

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि यह माया बहुत ही बुरी चीज है और यह व्यक्ति को भी बुरा बना देती है। यह तो इतनी बुरी है कि बाप और बेटे को भी अलग-अलग कर देती है।

115. जहर की जर्मी में है रोपा, अभी खींचे सौ बार,
कबिरा खलक न तजे, जामे कौन विचार।

सरलार्थ: संत कबीर कहते हैं कि जिस व्यक्ति के हृदय में जहर भरा हुआ है वहाँ भक्ति के विचार पैदा नहीं हो सकते। इसलिए पहले उस जहर को उखाड़ कर बाहर फेंक दीजिए।

116. जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय,
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय।

सरलार्थ: अगर आपका मन शाँत है तो इस संसार में आपका कोई भी दुश्मन नहीं होगा। अगर आप अपना अहम त्याग दें तो सब लोग आप से सहानुभूति से पेश आयेंगे।

117. जो जाने जीव न आपना, करहीं जीव का सार,
जीवा ऐसा पाहौना, मिले ना दूजी बार।

सरलार्थ: यह शरीर एक पहनावा है जो दूसरी बार नहीं मिलेगा। इसलिए हर व्यक्ति को जीवित रहते हुए अपनी आत्मा के सार को ढूँढना चाहिए।

118. जो तू चाहे मुक्त को, छोड़े दे सब आस,
मुक्त ही जैसा हो रहे, बस कुछ तेरे पास।

सरलार्थ: अगर आप मुक्ति चाहते हैं तो सब इच्छाओं का त्याग कर दो। और आपके पास जो भी वस्तुएँ पड़ी हैं उन्हें भी इच्छाओं से मुक्ति दे दो। अर्थात मोह -माया त्याग दो।

119. साईं आगे सांच है, साईं सांच सुहाय,
चाहे बोले केस रख, चाहे घौंट भुण्डाय।

सरलार्थ: ईश्वर को सच्चा व्यक्ति ही पा सकता है। क्युँकि ईश्वर को सच्चाई पसंद है। फिर सच्चा आदमी चाहे लंबे बाल रखे या बाल मुंडवा दे उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह ईश्वर को प्रिय रहेगा।

120. अपने-अपने साख की, सबही लीनी मान,
हरि की बातें दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान।

सरलार्थ: अलग धर्म के लोग ईश्वर के बारे में अलग बातें करते हैं और हमें उन्हें सुन लेना चाहिए। क्योंकि ईश्वर की बातें बहुत ही अनंत हैं और कोई भी उन्हें पूरी तरह से नहीं जान सकता है।

Kabir Ke Dohe

121. कबीर जात पुकारया, चढ़ चढ़न की डार,
बाट लगाए ना लगे, फिर क्या लेत हमार।

सरलार्थ: संत कबीर कहते हैं कि कुछ लोगों ने पेड़ों पर चढ़कर मेरी जाति का अपमान किया। लेकिन उन्होंने कभी भी ईश्वर की राह नहीं देखी। ऐसे काम करके इन लोगों ने मुझसे क्या हासिल कर लिया।

122. लोग भरोसे कौन के, बैठे रहें उरगाय,
जीय रही लूटत जम फिरे, मेढ़ा लुटे कसाय।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि बिना भक्ति करने वाले लोग पता नहीं किसके भरोसे बैठे हैं। जिस तरह बकरे को कसाई काटकर मार देता है उसी तरह इस मनुष्य शरीर को भी एक दिन यमदूत ले जाएंगे।

123. एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार,
है जैसा तैसा हो रहे, रहें कबीर विचार।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि मनुष्य के विचार आते – जाते रहते हैं। अभी एक विचार आता है तो अभी दूसरा आता है। और बहुत बार यह हमारे दिमाग में ही उलझे रहते हैं।

124. खेत ना छोड़े सूरमा, जूझे दो दल मोह,
आशा जीवन मरण की, मन में राखें नोह।

सरलार्थ: सच्चा भक्त कभी भी मैदान छोड़कर नहीं जाता है बेशक उस उसे मोह – माया नाम के दो दुश्मन खींचते रहते हैं। उसी तरह अगर हम भी जीवन और मरण की इच्छा ना रखें तो सच्ची भक्ति को प्राप्त कर सकते हैं।

125. लीक पुरानी को तजें, कायर कुटिल कपूत,
लीख पुरानी पर रहें, शातिर सिंह सपूत।

सरलार्थ: पुरानी परंपराओं को कायर, कुटिल और कपूत लोग छोड़ देते हैं लेकिन जो बुद्धिमान हैं, शेर दिल हैं और सच्चे सपूत हैं वे अपनी पुरानी परंपराओं पर अडिग रहते हैं। Famous Kabir Ke Dohe.

126. संत पुरुष की आरसी, संतों की ही देह,
लखा जो चाहे अलख को, उन्ही में लख लेह।

सरलार्थ: संत पुरुष की महिमा बताई नहीं जा सकती है। उनकी देह भी बहुत ही अनमोल होती है। अगर आप ईश्वर को देखना चाह रहे हो तो उनकी देह में ही ईश्वर के दर्शन कर लीजिए।

127. भूखा-भूखा क्या करे, क्या सुनावे लोग,
भांडा घड़ निज मुख दिया, सोई पूर्ण जोग।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि अगर कोई मनुष्य भूखा है तो उसे भक्ति के उपदेश समझ नहीं आएंगे। जिस प्रकार खाली खड़े को पानी से ही पूर्ण किया जा सकता है। इस तरह से भूखे को पहले भोजन दीजिये।

128. गर्भ योगेश्वर गुरु बिना, लागा हर का सेव,
कहे कबीर बैकुंठ से, फेर दिया शुक्देव।

सरलार्थ: बिना गुरु के ईश्वर नहीं मिलते हैं। कबीर जी कहते हैं कि बैकुंठ जाकर उन्होंने सुखदेव को भी यह बात समझाई।

129. प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बनाय,
चाहे घर में वास कर, चाहे बन को जाय।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि सच्चे ईश्वर प्रेम में एक ही भाव होना चाहिए। फिर चाहे कोई अपने घर में रहकर ईश्वर से प्रेम करें या जंगल में सन्यास लेकर प्रेम करे, उससे फर्क नहीं पड़ता।

130. कांचे भांडे से रहे, ज्यों कुंभार का देह,
भीतर से रक्षा करे, बाहर चोई देह।

सरलार्थ: गुरु को एक कुम्हार की तरह अपने शिष्यों को गढ़ना चाहिए। जैसे कुम्हार बर्तन को बाहर से तो थपकी देता है लेकिन अंदर से उसकी रक्षा करता है।

Best Kabir Ke Dohe

131. साँई ते सब होते हैं, बन्दे से कुछ नाहिं,
राई से पर्वत करे, पर्वत राई माहिं।

सरलार्थ: ईश्वर से ही सब कुछ संभव होता है इंसान के हाथ में कुछ भी नहीं है। ईश्वर राई से पर्वत बना सकते हैं और पर्वत को राई बना सकते हैं।

132. केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह,
अवसर बोवे उपजे नहिं, जो नहीं बरसे मेह।

सरलार्थ: बहुत सारे लोग आलसी होकर पड़े रहते हैं और कुछ भी कार्य नहीं करते हैं। जब पानी बरसता है तो उन्हें खेती करनी चाहिए लेकिन वे ऐसा नहीं करते हैं और इससे वे अच्छा अवसर खो देते हैं।

133. एक ते अनंत अंत, एक हो जाय,
एक से परचे भया, एक मोह समाय।

सरलार्थ: ईश्वर अनंत है और वही अंत है। उनकी भक्ति में जाकर यह सब एक ही हो जाते हैं। लेकिन जब तक व्यक्ति मोह को नहीं छोड़ता है तब तक वह ईश्वर में नहीं समा।

134. साधु सती और सूरमा, इनकी बात अगाध,
आशा छोड़े देह की, तन की अनथक साध।

सरलार्थ: साधु , सती और योद्धा – इनकी भक्ति अगाध होती है। यह सब इच्छाओं को छोड़कर अपने शरीर को घोर तपस्या में लीन किये रहते हैं।

135. हरि संगत शीतल भया, मिटी मोह की ताप,
निशिवासर सुख निधि, लहा अन्न प्रगटा आप। (Popular Kabir Ke Dohe)

सरलार्थ: ईश्वर की शरण में जाकर मन को बहुत शांति मिलती है। हमारी सारी मोह माया मिट जाती है। दिन रात सुख मिलने लगता है। और भोजन भी हमारे सामने खुद ही प्रकट हो जाता है।

136. आशा का ईंधन करो, मनशा करो बभूत,
जोगी फेरी यों फिरो, तब वन आवे सूत।

सरलार्थ: इच्छाओं को जला दो और उनकी विभूति बना लो। जोगियों वाली फेरी ऐसे लो कि आपको आत्मज्ञान हो जाए।

137. आवत गारी एक है, उलटन होय अनेक,
कह कबीर नहिं उलटिये, वही एक की एक।

सरलार्थ: जीवन की गाड़ी एक है लेकिन हम उसे अनेक तरह से उलटाने का प्रयास करते हैं। अर्थात अपने जीवन में गलत चीजें करते हैं। इसलिए कबीर जी कहते हैं कि इस गाड़ी को उल्टाने की कोशिश मत कीजिए क्योंकि यह आपको एक बार ही मिलती है।

138. उज्जवल पहरे कापड़ा, पान-सुपारी खाय,
एक हरि के नाम बिन, बाँधा यमपुर जाय।

सरलार्थ: जो व्यक्ति उज्जवल कपड़े पहन कर सेल्स पार्टी करते रहते हैं और पांच परी खाते रहते हैं बी बिना ईश्वर के नाम लिए जंजीरों से बांधकर यमलोक ही ले जाए जाएंगे।

139. कबीरा गरब न कीजिए, कबहूँ न हँसिये कोय,
अजहूँ नाव समुद्र में, ना जाने का होय।

सरलार्थ: कबीर जी कहना चाहते हैं कि हमें ईश्वर की भक्ति जरूर करनी चाहिए। कभी खुद पर गर्व नहीं करना चाहिए और दूसरे को देखकर उसका मजाक नहीं उड़ाना चाहिए। क्योंकि हम सब क्योंकि हमारा जीवन एक नाव की तरह है जो क्योंकि हमारा जीवन समुद्र में पड़ी हुई एक नाव की तरह है और न जाने कब क्या हो जाए।

140. कबीरा कलह अरु कल्पना, सत्संगति से जाय,
दुख बासे भागा फिरै, सुख में रहै समाय।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि झगड़ा आदि चीज संतों की संगति से दूर हो जाती हैं। दुख भी दूर भाग जाता है और सुख पास आ जाता है।

Inspiring Kabir Ke Dohe

141. उतते कोई न आवई, पासू पूछैं धाय,
इतने ही सब जात है, भार लदाय लदाय।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं की मदद करने के लिए कोई आता नहीं है लेकिन हाल-चाल सब पूछते रहते हैं। साथ में भी तरह-तरह के बाहर भी लड़ देते हैं।

142. एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार,
है जैसा तैसा रहे, रहे कबीर विचार।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि यह जीवन क्षणभंगुर है। एक व्यक्ति आ रहा है तो दूजा जा रहा है। और इसी तरह से यह सारा संसार चला हुआ है।

143. ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय,
औरन को शीतल करे, आपौ शीतल होय।

सरलार्थ: मनुष्य को ऐसी बात बोलनी चाहिए जिसमें अहंकार ना हो। ऐसे वचन बोलने चाहिए जो दूसरों को भी संतुष्टि दें और खुद को भी संतुष्ट रखें।

144. कबीरा संगति साधु की, जौ की भूसी खाय,
खीर खाँड़ भोजन मिले, ताकर संग न जाय।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि अगर जौ की भूसी खाकर भी साधु की संगति मिलती है तो हमें वह ले लेनी चाहिए। लेकिन चीनी और खीर का भोजन मिले तो भी दुष्ट की संगति नहीं करनी चाहिए।

145. एक ते जान अनंत, अन्य एक हो आय,
एक से परचे भया, एक बाहे समाय।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि ईश्वर को पाने के अनेक तरीके हैं। लेकिन अंत में ईश्वर एक ही है। जब आपका अंदर के ईश्वर से परिचय हो जाता है तो बाकी सब चीज बाहर छूट जाती है। Philosophy – Kabir Ke Dohe.

146. कबीरा संगति साधु की, निष्फल कभी न होय,
दुर्गति दूर वहावति, देवी सुमति बनाय।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि साधुओं की संगति कभी भी निष्फल नहीं जाती है। वे हमारी बुरी सोच को दूर बहा देते हैं और हमारे अंदर देवताओं जैसी सद्बुद्धि ला देते हैं।

147. कबीरा संगित साधु की, निन्दा फल कभी न होय,
होमी चन्दन बासना, नीम न कहसी कोय।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि साधु की संगति से हमें कभी भी नुकसान नहीं होता है। जिस तरह चंदन में सुगंध होती है और नीम में कड़वाहट होती है उसी प्रकार से साधु के अंदर सज्जनता होती है।

148. को छूटौ इहीं जाल परि, कत फुरंग अकुलाय,
ज्यों – ज्यों सुरझि भजौ चहै, त्यों – त्यों उरझत जाय।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि जब मोह माया का जाल हमारे मन के पंछी पर पड़ जाता है तो वह कितने भी पंख फड़फड़ा ले, वह जाल और उलझता जाता है।

149. कबीरा मन पंछी भया, भये तो बाहर जाय,
जो जैसे संगति करै, सो तैसा फल पाय।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि मन एक पंछी की तरह है। कभी-कभी वह पिंजरे से बाहर भी चला जाता है तथा मृत्यु को प्राप्त होता है। इसलिए जो जैसी संगति करता है उसे वैसा ही परिणाम मिलता है।

150. कबीरा लोहा एक है, गढने में है फेर,
ताहि का बखतर बने, ताहि की शमशेर।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि लोहा तो एक ही होता है लेकिन उसे तरह-तरह से घड़ा जा सकता है। उसी लोहे का कवच भी बन जाता है और उसी की तलवार भी बनाई जा सकती है।

Famous Kabir Ke Dohe – संत कबीर के दोहे

151. कहे कबीर देय तू, जब तक तेरी देह,
देह खेह हो जाएगी, कौन कहेगा देह।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि हे मनुष्य, जब तक तेरा शरीर स्वस्थ है तब तक दान करता रह। एक दिन यह देह खाक हो जाएगी फिर तुझसे कोई भी दान नहीं माँगेगा।

152. काह भरोसा देह का, बिनस जात छिन मारहिं,
साँस-साँस सुमिरन करो, और यतन कुछ नाहिं।

सरलार्थ: संत कबीर कहते हैं कि इस देह का क्या भरोसा है, यह एक क्षण में भी नष्ट हो सकती है। इसलिए हर आने – जाने वाली सांस में आप प्रभु का नाम लेते रहिए। मोक्ष प्राप्ति का यही एक साधन है।

153. काल करे सो आज कर, सबहि सात तुव साथ,
काल काल तू क्या करे, काल काल के हाथ।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि जो काम आप कल करने वाले हो उसे आज ही कर लो। इसके अलावा काल की बात मत किया करो क्योंकि सब कुछ काल के हाथ में ही है।

154. काया काढ़ा काल घुन, जतन-जतन सो खाय,
काया ब्रह्म ईश बस, मर्म न कांहू पाय।

सरलार्थ: मनुष्य का शरीर एक लकड़ी के समान है और समय घुन की तरह इस लकड़ी को धीरे-धीरे खाता रहता है। यह मनुष्य का शरीर ईश्वर के अधिकार में है और इस रहस्य को कोई भी जान नहीं सकता।

155. कहा कियो हम आय कर, कहा करेंगे पाय,
इनके भये न उतके, चाले मूल गवाय। Kabir Ke Dohe with Meaning.

सरलार्थ: जीवन में आकर हमने क्या किया और आगे हम क्या पाएंगे, इन दोनों के बारे में सोचते हुए आपने मूल चीज तो गँवा ही दी अर्थात भक्ति करना ही भूल गए।

156. करता था सो क्यों किया, अब कर क्यों पछिताय,
बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय।

सरलार्थ: मनुष्य जब तू गलती कर रहा था तब तू रुका नहीं और अब पछताने से क्या फायदा है। जब तूने बबूल के पेड़ बो दिए हैं तो अब उनसे आम की इच्छा क्यों कर रहा है।

157. कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूँढे बन माहिं,
ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नाहिं।

सरलार्थ: हिरण की नाभि में ही कस्तूरी होती है लेकिन वह उसे जंगल – जंगल ढूँढता रहता है। इसी तरह से राम तो कण – कण में है लेकिन दुनिया उसे देख नहीं पाती।

158. कबिरा यह जग कुछ नहीं, खिन खारा मीठ,
काल्ह जो बैठा भण्डपै, आज भसाने दीठ।

सरलार्थ: संत कबीर कहते हैं कि यह जग कभी खारा है तो कभी मीठा है। आज जो सिंहासन पर बैठा है कल वह मिट्टी में मिल जाएगा।

159. कबीरा आप ठगाइए, और न ठगिये कोय,
आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुःख होय।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि अगर ठगना है तो खुद को ठगो दूसरों को मत ठगो। दूसरों को ठगने से आपको ही दुख पहुंचेगा लेकिन अगर आप अपने मन को ठगेंगे और उसे भक्ति में लगाएंगे तो आपको सुख मिलेगा।

160. कथा कीर्तन कुल विशे, भव सागर की नाव,
कहत कबीरा या जगत, नाहीं और उपाव।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि आपको ईश्वर की कथा और उसका कीर्तन करते रहना चाहिए तभी आप इस भवसागर की कश्ती को पार लगा पाएंगे। इसके अलावा इस जगत में और कोई उपाय नहीं है।

संत कबीर के दोहे – (Top Kabir Ke Dohe)

161. कबीरा सोता क्या करे`, जागो जपो मुरार,
एक दिना है सोवना, लाम्बे पाँव पसार।

सरलार्थ: कबीर स्वयं को प्रेरित करते हुए कहते हैं कि अरे कबीर तुम सो कर क्या कर रहे हो, अब जाग जाओ और मुरारी का नाम जाप करो। क्योंकि एक एक दिन तो तुम्हें हमेशा के लिए सो ही जाना है।

162. कागा काको घन हरे, कोयल काको देय,
मीठे शब्द सुनाए के, जग अपनो कर लेय।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि वैसे तो कौवा और कोयल दोनों ही काले होते हैं। लेकिन जहाँ कौवा कर्कश बोलता है वहीं कोयल मीठा बोल कर सबका मन मोह लेती है। इसलिए हमें हमेशा मीठी बात बोलनी चाहिए।

163. कबीरा सोई पीर है, जो जा नैं पर पीर,
जो पर पीर न जनाई, सो काफिर के पीर।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि जो दूसरों की छिपी हुई पीड़ा को भी देख लेते हैं वह असली संत होते हैं। लेकिन जो मनुष्य दूसरों की पीड़ा नहीं समझता है वह काफिर के समान होता है।

164. कबिरा मनहि गयंद है, आकुंश दै-दै राखि,
विष की बेली परि रहै, अमृत को फल चाखि।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि मनुष्य का मन बहुत चंचल होता है और इसे हमेशा टोकते रहना चाहिए। नहीं तो यह विष की बेल की तरह बढ़ जायेगा। इसलिए इसे ऐसा करने से रोकिये तभी आप अमृत के फल चख सकते हैं।

165. चन्दन जैसा साधु है, सर्पहि सम संसार,
वाके अंग लपटा रहे, मन में नाहिं विकार।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि साधु चंदन के वृक्ष की तरह है तथा यह संसार उसके इर्द-गिर्द लिपटे हुए साँप की तरह है। लेकिन बेशक यह साँप चंदन के चारों ओर लिपटे रहते हैं, फिर भी चंदन जहरीला नहीं बनता। उसी तरह मनुष्य को बुरी संगति का प्रभाव खुद पर नहीं पड़ने देना चाहिए।

166. घी के तो दर्शन भले, खाना भला न तेल,
दाना तो दुश्मन भला, मूरख का क्या मेल।

सरलार्थ: घी के दर्शन भी हो जाए तो वह स्वास्थ्य के लिए अच्छे हैं। लेकिन तेल खाना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। उसी प्रकार से एक समझदार दुश्मन एक मूर्ख दोस्त से ज्यादा बेहतर है। Kabir Ke Dohe.

167. चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय,
दुइ पट भीतर आइके, साबुत बचा न कोय।

सरलार्थ: चलती हुई चक्की को देखकर कबीर को बहुत दुख होता है। क्युँकि वे देखते हैं कि चक्की के दोनों पाटों (पहियों) के बीच में अनाज का कोई भी दाना साबुत नहीं बच रहा। अर्थात मनुष्य भी एक दिन काल की चक्की में मर जाएगा, मगर पता नहीं वह किस लिए इतना अहंकार करता है।

168. जा पल दर्शन साधु का, ता पल की बलिहारी,
राम नाम रसना बसे, लीजै जनम सुधारी।

सरलार्थ: जिस पल आपको किसी अच्छे साधु के दर्शन होते हैं उस पल आपको ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिए। अगर आपके हृदय में राम नाम का रस बह रहा है तो आपका जीवन सुधर जाएगा।

169. जब लग भक्ति से काम है, तब लग निष्फल सेव,
कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामा निज देव।

सरलार्थ: जब तक आपके मन में काम- वासना है तब तक आपकी भक्ति आपको फल नहीं देगी। जब आप निष्काम भक्ति करते हैं तभी ईश्वर आपसे प्रसन्न होते हैं।

170. जा घट प्रेम न संचरे, सो घट जान समान,
जैसे खाल लुहार की, साँस लेतु बिनु प्रान।

सरलार्थ: जिस प्राणी के हृदय में प्रेम ही नहीं है वह जीवित होते हुए भी मुर्दा के समान है। वह उसी तरह है जिस तरह लोहार के पास एक खाल होती है जो मुर्दा होते हुए भी साँस लेती प्रतीत होती है।

Famous Kabir Ke Dohe ( कबीर के दोहे)

171. ज्यों नैनन में पूतली, त्यों मालिक घर माहिं,
मूरख लोग न जानिए, बाहर ढूँढत जांहि।

सरलार्थ: जिस तरह हमारे नेत्रों में पुतली रहती है, उसी प्रकार से हमारे मन में ईश्वर रहते हैं। लेकिन मूर्ख लोग ईश्वर को बाहर ढूँढने जाते हैं।

172. जाके मुख माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप,
पुछुप बास तें पामरा, ऐसा तत्व अनूप।

सरलार्थ: ईश्वर का न मुँह है न माथा है, न कोई रूप है न रंग है। वह तो हृदय में बास करता है और वह एक अनुपम तत्व है।

173. जहाँ आप तहाँ आपदा, जहाँ संशय तहाँ रोग,
कह कबीर यह क्यों मिटैं, चारों बाधक रोग।

सरलार्थ: जहाँ आप में अहंकार आ जाता है वहीं विपत्ति शुरू हो जाती है। जहाँ आप में ईश्वर के प्रति संदेह आता है वहीं पर रोग शुरू हो जाते हैं। यदि आप अपना अहंकार तथा ईश्वर का संदेह मिटा देंगे तो आपके सारे रोग तथा कष्ट खत्म हो जाएंगे।

174. झूठे सुख को सुख कहे, मानता है मन मोद,
जगत चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद।

सरलार्थ: इंसान झूठे सुख को असली सुख समझ बैठा है और भोग बिलासों में आसक्त हो रहा है। लेकिन यह सारा जगत ही काल का चवैना (snacks ) है जो उसे खा रहा है। कुछ उसके मुँह में जा रहा है कुछ उसकी गोदी में गिर रहा है। अर्थात कुछ लोग मर रहे हैं तो कुछ लोग पैदा हो रहे हैं।

175. जो तू चाहे मुक्ति को, छोड़ दे सबकी आस,
मुक्त ही जैसा हो रहे, सब कुछ तेरे पास।

सरलार्थ: अगर आपको मुक्ति चाहिए तो सब इच्छाओं का त्याग कर दीजिए। सब कुछ होते हुए भी आप ऐसे रहिए जैसे आप पहले ही मुक्त हो गए हों।

176. जो जाने जीव आपना, करहीं जीव का सार,
जीवा ऐसा पाहौना, मिले न दीजी बार।

सरलार्थ: मनुष्य को अपनी आत्मा के बारे में ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। और अपने जीवन के सार को समझना चाहिए। क्योंकि यह जीवन एक पहनावे की तरह है जो हमें दुबारा नहीं मिलेगा।

177. ते दिन गये अकारथी, संगत भई न संत,
प्रेम बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भगवंत।

सरलार्थ: उस जीवन को व्यर्थ समझना चाहिए जिसमें हम ना तो संतो के पास जाते हैं और ना कोई सत्संग करते हैं। ईश्वर के प्रेम के बिना मनुष्य जीवन पशु के समान है जिसे न भक्ति मिलती है और न भगवान।

178. तीर तुपक से जो लड़े, सो तो शूर न होय,
माया तजि भक्ति करे, सूर कहावै सोय।

सरलार्थ: जो व्यक्ति तीर तलवार से लड़ता है वह असली योद्धा नहीं है। जो अपनी मोह माया को त्याग कर भक्ति करता है वास्तव में वह सच्चा योद्धा होता है। Indian oet: Kabir Ke Dohe.

179. तन को जोगी सब करे, मन को बिरला कोय,
सहजै सब विधि पाइये, जो मन जोगी होय।

सरलार्थ: बाहर से सब लोग योगी बने फिरते हैं, लेकिन मन से जोगी कोई-कोई ही होता है। ऐसा जोगी मिले तो उसकी शरण में जाना चाहिए।

180. तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर,
तब लग जीव जग कर्मवश, जब लग ज्ञान ना पूर।

सरलार्थ: तारे तभी तक जगमगाते रहते हैं जब तक सूर्य से नहीं निकलता। वैसे ही हमें सांसारिक कर्मों में तब तक आनंद आता है जब तक हमारे अंदर सच्चा ज्ञान पैदा नहीं होता।

Inspiring Kabir Ke Dohe

181. दुर्लभ मानुष जनम है, देह न बारम्बार,
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार।

सरलार्थ: मनुष्य का जन्म दुर्लभ है और यह देह बार-बार नहीं मिलेगी। इसलिए हमें इसे भक्ति में लगाना चाहिए। जिस तरह पेड़ से गिरा हुआ सूखा पत्ता फिर से पेड़ पर नहीं लगता उसी प्रकार यह जीवन फिर से नहीं मिलता।

182. न्हाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाय,
मीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाय।

सरलार्थ: संत कबीर कहते हैं कि हे मनुष्य तू नहा – धो तो लिया, लेकिन इसका क्या फायदा हुआ। तेरे मन का मैल तो गया ही नहीं। जैसे मछली हमेशा पानी में ही रहती है लेकिन उसे बार-बार धोने पर भी उसकी बास नहीं जाती। अर्थात मन को साफ़ करना ज्यादा जरुरी है।

183. पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढ़ाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि किताबें पढ़ – पढ़ कर कई विद्वान परलोक चले गए लेकिन कोई भी सच्चा पंडित नहीं बन सका। लेकिन जो प्रेम के ढाई अक्षर पढ़ लेता है वही वास्तविक पंडित होता है।

184. पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात,
देखत ही छिप जाएगा, ज्यों सारा परभात।

सरलार्थ: मनुष्य का जीवन सिर्फ पानी का बुलबुला है। देखते ही देखते यह बुलबुला फूट जाएगा। जिस प्रकार सुबह एकदम से चली जाती है वैसे ही यह जीवन चला जाता है।

185. पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजौं पहार,
याते ये चक्की भली, पीस खाय संसार।

सरलार्थ: पत्थर पूजने से अगर ईश्वर मिलते तो मैं सारा पहाड़ ही पूज लेता। इन पत्थर की मूर्तियों से तो यह चक्की भली है जिसको फेरने से सारे संसार का पेट भरता है। अर्थात मूर्ति पूजा निरर्थक है।

186. पत्ता बोला बृक्ष से, सुनो वृक्ष बनराय,
अब के बिछुड़े ना मिले, दूर पड़ैंगे जाय।

सरलार्थ: पत्ता वृक्ष से कहता है कि हे वृक्ष महाराज, यह जीवन बहुत छोटा है। जब मैं आपसे बिछड़ जाऊँगा तो बहुत दूर गिरूंगा अर्थात वापस नहीं आऊँगा। Kabir Ke Dohe – bestcouplets.

187. बँधे को बंधा मिले, छटे कौन उपाय,
कर संगति निरबन्ध की, पल में लेय छुड़ाय।

सरलार्थ: अगर एक बँधा हुआ आदमी दूसरे बँधे हुए के पास मदद के लिए जाता है, तो वे एक दूसरे को कैसे बन्धन – मुक्त कर सकते हैं। इसलिए हमें ऐसे मनुष्य के पास जाना चाहिए जो बँधा हुआ नहीं है क्युँकि वह हमें एक ही पल में छुड़ा लगा। अर्थात संसार के लोग मोह – माया के बंधनों में बंधे हुए हैं, जबकि साधु – जन इन बंधनों से मुक्त हैं और हमें साधुओं की संगति में जाना चाहिए।

188. बूँद पड़ी जो समुद्र में, ताहि जाने सब कोय,
समुद्र समाना बूँद में, बूझै बिरला कोय।

सरलार्थ: जब बूँद समुद्र में गिरती है तो सब लोग उसे देख लेते हैं। लेकिन जब एक बूंद के अंदर समुद्र छुपा होता है उसे कोई नहीं जानता। अर्थात सच्चे साधु के अंदर बहुत सारा ज्ञान होता है लेकिन लोग उन्हें पहचान नहीं पाते।

189. बाहर क्या दिखराइये, अंतर जपिये राम,
कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम।

सरलार्थ:

190. बड़ा हुआ सो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर,
पंछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।

सरलार्थ: अगर कोई व्यक्ति बड़ा भी हो जाए तो जरुरी नहीं वह दूसरों की भलाई करेगा। जैसे खजूर का पेड़ देखने में तो बहुत लंबा होता है लेकिन न तो वह किसी राही को छाया देता है और उसके फल भी बहुत दूर लगते हैं, जिन्हें कोई खा भी नहीं पाता।

World Famous Kabir Ke Dohe

191. मूँड मुड़ाये हरि मिले, सब कोई लेय मुड़ाय,
बार-बार के मुड़ते, भेड़ न बैकुण्ठ जाय।

सरलार्थ: अगर सिर को मुँड़वाने से ईश्वर मिलते, तो मैं सारी शरीर को ही मुँड़वा लेता। जैसे भेड़ को बार-बार मूँड़ा जाता है, लेकिन क्या वह बैकुंठ चली जाती है।

192. माया तो ठगनी बनी, ठगत फिरे सब देश,
जा ठग ने ठगनी ठगो, ता ठग को आदेश।

सरलार्थ: माया तो एक ठगनी है जिसने देशों तक को ठग लिया है। लेकिन जिस व्यक्ति ने ऐसी माया को ही ठग लिया और ईश्वर की शरण में चला गया, वह विष्णु लोक जाता है।

193. भज दीना कहूँ और ही, तन साधुन के संग,
कहैं कबीर कारी गजी, कैसे लागे रंग।

सरलार्थ: मनुष्य को राम नाम का भजन करना चाहिए और साधुओं की संगति करनी चाहिए। लेकिन अगर हम भक्ति को त्याग देते हैं तो हम पर राम का रंग नहीं चढ़ सकता।

194. मथुरा भावे द्वारिका, भावे जो जगन्नाथ,
संत संग हरि भजन बिनु, कुछ न आवे हाथ।

सरलार्थ: मनुष्य चाहे मथुरा जाए या द्वारिका जाए या जगन्नाथ जाए, लेकिन जब तक वह संतों की संगत नहीं करता और ईश्वर का भजन नहीं करता तब तक उसके हाथ कुछ भी नहीं आने वाला है।

195. माली आवत देख के, कलियान करी पुकार,
फूल-फूल चुन लिए, काल हमारी बार।

सरलार्थ: माली को आता हुआ देखकर कलियाँ उसे पुकारती हैं कि हमें भी चुन लो। लेकिन माली केवल फूलों को चुनता है और कलियों से कहता है कि कल तुम्हारी बारी होगी। इसी प्रकार से ईश्वर समय आने पर ही हमें कर्म फल देते हैं।

196. ये तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं,
सीस उतारे भुँई धरे, तब बैठें घर माहिं।

सरलार्थ: प्रेम का घर बहुत ही कठोर है। यह मौसी के घर की तरह नहीं है। प्रेम के घर में अगर आपको बैठना है तो हो सकता है आपको अपना सिर भी कटवाना पड़े। Kabir Ke Dohe For best Life.

197. या दुनियाँ में आकर, छाँड़ि देय तू ऐंठ,
लेना हो सो लेइले, उठी जात है पैंठ।

सरलार्थ: इस दुनिया में आकर हमें अपने अहंकार का त्याग कर देना चाहिए। यहाँ आप जो लेना चाहते हैं वह ले सकते हो। लेकिन यह मौका बहुत लंबे समय तक नहीं रहता है और बहुत जल्दी ही पैंठ (पंक्ति) उठ जाती है। अर्थात हमें इस दुनिया में भक्ति कर लेनी चाहिए क्योंकि बहुत जल्दी हमारी मृत्यु हो जाएगी और फिर हमें यह अवसर प्राप्त नहीं होगा।

198. राम नाम चीन्हा नहीं, कीना पिंजर बास,
नैन न आवै नीदरौं, अलग न आवै भास।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि हे मनुष्य तूने राम नाम का भजन नहीं किया और इस शरीर रूपी पिंजरे में रहता रहा। लेकिन अब तेरा अंत समय आ गया है अब तेरी आंखों में नींद नहीं है और तेरी रूह में चैन नहीं है।

199. राम बुलावा भेजिए, दिया कबीरा रोय,
जो सुख साधु संग में, सो बैकुंठ न होय।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि मुझे राम ने वैकुंठ आने का आमंत्रण दिया है। लेकिन अब मेरी आंखों में आंसू है। क्योंकि मैं सोच रहा हूँ कि इन साधुओं की संगति में जो सुख है वह बैकुंठ में कहाँ होगा।

200. संगत सों सुख्या ऊपजे, कुसंगति सों दुःख होय,
कह कबीर तहँ जाइये, साधु संग जहँ होय।

सरलार्थ: अच्छी संगत से सुख मिलता है और बुरी संगत से दुख होता है। इसलिए कबीर कहते हैं कि आपको वहाँ जाना चाहिए जहाँ साधु लोगों की संगत हो।

Timeless Kabir Ke Dohe

Kabir ke Dohe
Kabir Ke Dohe

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201. साहिब तेरी साहिबी, सब घट रही समाय,
ज्यों मेहँदी के पात में, लाली रखी न जाय।

सरलार्थ: इस दोहे में कबीर जी ईश्वर को साहब कह रहे हैं। वे कहते हैं कि हे ईश्वर आप घट-घट में विराजमान हैं। जिस प्रकार मेहँदी के पत्तों की लाली सिर्फ पत्तों में नहीं रहती है बल्कि हाथ में आ जाती है उसी प्रकार से आप भी हर कण में मौजूद हैं।

202. साँझ पड़े दिन बीतबै, चकवी दीन्ही रोय,
चल चकवा वा देश को, जहाँ रैन नहिं होय।

सरलार्थ: जब साँझ ढलती है तो चकवी रोने लगती है। वह चकवे से कहती है कि उस देश में चलो जहाँ रात ही ना हो।

203. संग ही में सत बांटे, रोटी में ते टूक,
कहे कबीर ता दास को, कबहुँ न आवे चूक।

सरलार्थ: अगर आप सत्संग करेंगे तो वहाँ पर आपको सत्य ही मिलेगा, जैसे रोटी में से रोटी का टुकड़ा ही मिलता है। कबीर कहते हैं कि हे प्रभु मैं हमेशा आपका दास रहूँ और भक्ति में गलती न करूँ।

204. साईं आगे सांच है, साईं सांच सुहाय,
चाहे बोले केस रख, चाहे घोंट मुंडाय।

सरलार्थ: ईश्वर के आगे सच्चे रहिए क्योंकि ईश्वर को सच्चा व्यक्ति ही प्रिय लगता है। सच्चा व्यक्ति चाहे लंबे बाल रखे, चाहे सर को मुंडा दे, उससे ईश्वर को कोई फर्क नहीं पड़ता है।

205. लकड़ी कहै लुहार की, तू मति जारे मोहिं,
एक दिन ऐसा होयगा, मैं जारौंगी तोहि।

सरलार्थ: लकड़ी लोहार से कहती है कि तू मुझे क्या जलाएगा, एक दिन ऐसा आएगा कि मैं तुझे जलाऊँगी। अर्थात मृत्यु होने पर मनुष्य को जला दिया जाता है। Kabir Ke Dohe in Hindi.

206. हरिया जाने रूखड़ा, जो पानी का गेह,
सूखा काठ न जान ही, केतऊ बूड़ा मेह।

सरलार्थ: हरा-भरा वृक्ष ही पानी के महत्व को जानता है। लेकिन सूखी लकड़ी बहुत ज्यादा पानी बरसने को भी कुछ नहीं समझती। उसी प्रकार से वही मनुष्य ईश्वर के महत्व को समझ सकता है जिसके मन में भक्ति की लौ रोशन हो।

207. ज्ञान रतन का जतनकर, माटी का संसार,
आय कबीर फिर गया, फीका है संसार।

सरलार्थ: संत कबीर कहते हैं कि मनुष्य को इस धरती पर ज्ञान ढूँढना चाहिए। तब उसे पता चलेगा कि यह संसार मिट्टी का बना हुआ है। कबीर इस संसार में आकर चला गया और उसने देखा कि यह सब फीका है। अर्थात असली सुख मोक्ष में है।

208. रिध्दि-सिध्दि मांगो नहीं, मांगो तुम पै येह,
निसि दिन दरशन शाधु को, प्रभु कबीर कहुँ देह।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि ईश्वर से रिद्धि – सिद्धि मत माँगो, बल्कि यह माँगो कि हर दिन किसी साधु के दर्शन होते रहें। इससे आप मोक्ष प्राप्त कर लोगे।

209. समा बड़ेन को उचित है, छोटे को उत्पात,
कहा विष्णु का घटि गया, जो भुगु मारी लात।

सरलार्थ: छोटे लोगों की गलती पर बड़े लोगों को क्षमा कर देना चाहिए। जिस प्रकार भृगु ने विष्णु की छाती पर लात मारी थी लेकिन उन्होंने उसे क्षमा कर दिया था। इससे विष्णु भगवान का कुछ भी नहीं घटा था।

210. राम-नाम कै पट तरै, देबे कौं कुछ नाहिं,
क्या ले गुर संतोषिए, हौंस रही मन माहिं।

सरलार्थ: जो व्यक्ति राम नाम को भजता है और जिसके पास देने के लिए कुछ नहीं है अर्थात वह निर्धन है, उससे गुरु कहते हैं कि हे संतुष्ट व्यक्ति मैं तुमसे क्या ही माँगू। अर्थात जो राम की भक्ति करता है वह संतुष्ट और सुखी रहता है।

Great Poet Kabir Ke Dohe

211. बलिहारी गुरु आपणौ, घौहण्डी कै बार,
जिन भानिष तैं देवता, करत न लागी बार।

सरलार्थ: कबीर जी अपने गुरु का धन्यवाद करते हुए कहते हैं कि गुरुजी मैं आपको प्रणाम करता हूँ। आपने मुझे इस प्रकार से घड़ा कि मनुष्य से मैं देवता स्वरूप बन गया हूँ।

212. ना गुरू मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव,
दुन्यू बूड़े धार में, चढ़ि पाथर की नाव।

सरलार्थ: जिस व्यक्ति ने न गुरु ढूँढा और जो न ही कभी किसी का शिष्य बन। लेकिन हमेशा लालच में फंसा रहा। वह अंत समय में भवसागर में पत्थर की नाव में बैठेगा। अर्थात वह डूब जाएगा।

213. सतगुरु हम सूँ रीझि करि, एक कहा प्रसंग,
बरस्या बादल प्रेम का, भीजि गया सब अंग।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि एक बार मेरे गुरु ने मुझसे प्रसन्न होकर एक ऐसी कहानी सुनाई जिसे सुनकर प्रेम का ऐसा बादल बरसा कि मेरा अंग – अंग भीग गया। अर्थात मैं भक्ति रस से धन्य हो गया।

214. कबीर सतगुरु न मिलया, रही अधूरी सीष,
स्वाँग जती का पहिर करि, धरि-धरि मांगे भीख।

सरलार्थ: कबीर कहते हैं कि जिसे सच्चा गुरु नहीं मिलता है उसे आशीर्वाद भी अधूरा ही मिलता है। फिर वह फकीर जैसा भेष धरकर घर-घर जाकर भिक्षा माँगता है लेकिन वह सच्चा गुरु नहीं होता।

215. यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान,
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान। (Kabir Ke Dohe with Meaning).

सरलार्थ: मनुष्य का शरीर जहर की बेल की तरह है लेकिन गुरु अमृत की खान जैसे होते हैं। इसलिए अगर हमें सिर कटवाकर भी सच्चा गुरु मिलता है तो भी उस दाम को सस्ता मानना चाहिए।

216. तू तू करता तू भया, मुझ में रही न हूँ,
वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तू।

सरलार्थ: जो भक्त हमेशा राम नाम का सिमरन करता है और “तू ही तू” कहता है, उसमें “मैं” (अहम्) नाम की चीज नहीं रहती। वह जिधर भी देखता है वहाँ उसे ईश्वर ही नजर आते हैं और अंत में वह मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।

217. कबीरा राम रिझाई लै, मुखि अमृत गुण गाइ,
फूटा नाग ज्यूँ जोड़ि मन, संधे संधि मिलाइ।

सरलार्थ: कबीर कहते हैं कि हे मनुष्य राम को प्रसन्न कर लो और हमेशा उनका गुणगान करो। एक दिन तुम्हारी आत्मा उस परमात्मा से वैसे ही मिल जाएगी जैसे अंगूठी से नग मिल जाता है।

218. लंबा मारग, दूरिधर, विकट पंथ, बहुमार,
कहौ संतो, क्यूँ पाइये, दुर्लभ हरि – दीदार।

सरलार्थ: कबीर कहते हैं कि भक्ति का मार्ग बहुत लंबा है, बहुत दूर है, बहुत ज्यादा कठिनाइयों से भरा है। कबीर संतों से पूछते हैं कि ऐसे मार्ग पर चलकर आप प्रभु के दर्शन क्यों करना चाहते हैं। अर्थात संत लोग हर कठिनाई सहकर ईश्वर की प्राप्ति में लगे रहते हैं।

219. राम पियारा छाँड़ि करि, करै आन का जाप,
बेस्या केरा पूत ज्यूँ, कहै कौन सू बाप।

सरलार्थ: जो मनुष्य प्यारे राम भगवान का जाप करने के बजाय अपनी आन और शान का गुणगान करते रहते हैं, वे वेश्या के उस पुत्र की तरह हैं जिन्हे समझ नहीं आता कि पिता किसे कहें।

220. कबीरा प्रेम न चषिया, चषि न लिया साव,
सूने घर का पाहुणा, ज्यूँ आया त्यूँ जाव।

सरलार्थ: कबीर कहते हैं कि जिसने भक्ति के प्रेम के रस को नहीं चखा, न ही कभी प्रभु की भक्ति की, वह मानो एक खाली घर का मेहमान हो। उस घर में वह जैसे आता है वैसे ही चला जाता है।

Beautiful Verses : Kabir Ke Dohe

221. बिरह – भुवगम तन बसै, मन्त्र न लागै कोई,
राम-बियोगी न जिवै, जिवै तो बौरा होई।

सरलार्थ: राम की भक्ति, सच्चे भक्त के तन और मन में बसी रहती है। उस पर कोई भी जादू – टोना असर नहीं करता है। और वह राम के वियोग में जी नहीं सकता। अगर राम उससे दूर हो जाएँ तो मानो उसकी मृत्यु हो जाती है।

222. यह तन जालों मसि करों, लिखों राम का नाउँ,
लेखणी करूँ करंक की, लिखी-लिखी राम पठाउँ।

सरलार्थ: कबीर कहते हैं कि मैं अपने तन को जलाकर इसकी स्याही बना लूँ और अपने अस्थि – पिंजर की लेखनी बनाकर हमेशा राम-राम ही लिखता रहूँ।

223. अंदेसड़ा न भाजिसी, सदैसों कहियां,
के हिर आयां भाजिसी, कैहिर ही पास गयां।

सरलार्थ: जिस व्यक्ति के मन से ईश्वर के प्रति संदेह नहीं जाता है और जो कभी भी ईश्वर के संदेश को नहीं पढ़ पाता है, वह खाली हाथ ही यहाँ आता है और खाली हाथ ही यहाँ से चला जाता है।

224. इस तन का दीवा करौ, बाती मेल्यूं जीवउं,
लोही सींचो तेल ज्यूँ, कब मुख देख पठिउं।

सरलार्थ: मैं इस तन का दीपक बना लूँ और अपनी आत्मा को बाती बना लूँ। फिर उसे अपनी भक्ति के तेल से सींचता रहूँ और श्री राम के मुख को देखते हुए हमेशा राम नाम जपता रहूँ।

225. अंषड़ियाँ झाईं पड़ी, पंथ निहारि – निहारि,
जीभिडियां छाला पड़या, राम पुकारि- पुकारि।

सरलार्थ: हे प्रभु , आपकी राह देखते -देखते मेरी आंखों के नीचे काले घेरे पड़ गए हैं और आपका नाम पुकारते – पुकारते मेरी जीभ में छाले पड़ गए हैं। अब आप मुझे दर्शन दीजिए।

226. सब रग तंत रबाब तन, बिरहै बजावै नित,
और न कोई सुणि सके, कै साईं के चित्त।

सरलार्थ: किसी व्यक्ति को इस संसार में प्रेम मिलता है तो किसी को बिरह मिलती है। लेकिन फिर भी ईश्वर की भक्ति करते रहिए, क्योंकि कोई भी नहीं जान सकता है कि ईश्वर के मन में आपके लिए क्या है।

227. जो रोऊँ तो बल घटे, हंसो तो राम रिसाई,
मन ही माहिं बिसूरणा, ज्यूँ घुण काठहि खाईं।

सरलार्थ: अगर मैं रोऊँ तो मेरे शरीर का बल घटता है और अगर मैं हँसू तो लोग रूठ जाते हैं। लेकिन अगर मैं मन ही मन सोचता रहूँ तो मेरा शरीर चिंता से खत्म होने लगता है जैसे घुन लकड़ी को खा रहा हो। कबीर इस दोहे में संसार की दुविधा के बारे में बता रहे हैं। Kabir Ke Dohe For everyone.

228. कबीर हँसणाँ दूरि करि, किर रोवण सौ चित्त,
बिन रोयां क्यूँ पाइये, प्रेम पियारा मित्त॥

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि अगर आप प्यार में पड़ते हैं, तो हंसना भूल जाते हैं। और आपको रोना भी पड़ सकता है। बिना रोए आप अपने मनमीत को नहीं पा सकते।

229. परबति परबति मैं फिरया, नैन गंवाए रोई,
सो बूटी पाऊं नहीं, जातैं जीवन होई।

सरलार्थ: कबीर कहते हैं कि मैं पर्वत – पर्वत घूमा और वहाँ ढूँढ – ढूँढ कर मेरी आँखों की रोशनी भी चली गई। लेकिन मुझे ऐसी कोई बूटी नहीं मिली जिससे मृत व्यक्ति जीवित हो सके।

230. पूत पियारौ पिता कौं, गौहनि लागो घाइ,
लोभ-मिठाई हाथ दे, आपण गयो भुलाइ।

सरलार्थ: पिता को पुत्र बहुत प्यारा होता है और वह हमेशा उसकी देखरेख करते हैं। कई बार वह अपनी मिठाई भी उसे दे देते हैं और खुद खाना भूल जाते हैं। कबीर जी इस दोहे में मोह के बारे में बता रहे हैं।

Great Couplets: Kabir Ke Dohe

231. हाँसी खेलौ हरि मिलै, कौण सहै षरसान,
काम क्रोध तृष्ण तजै, तोहि मिलै भगवान।

सरलार्थ: हंस – खेलकर अगर हरि मिल जाते, तो कोई भी व्यक्ति तपस्या के दुख – कष्ट क्यों भोगता। काम, क्रोध और लालच को छोड़कर ही आपको भगवान मिलेंगे।

232. कबीर कलिजुग आई करि, कीये बहुत जो भीत,
जिन दिल बांध्या एक सूं, ते सुख सोवै निचींत।

सरलार्थ: कबीर कहते हैं कि कलयुग ने आकर बहुत लोगों को भयभीत कर दिया है। लेकिन जिसने अपने दिल को ईश्वर की भक्ति से बाँध लिया है वह हमेशा सुख की नींद ही सोता है।

233. जब लग भगहित सकामता, सब लग निर्फल सेव,
कहै कबीर वै क्यूँ मिलै, निहकामी निज देव।

सरलार्थ: जब आपकी भक्ति में फल पाने की इच्छा हो तो वह सच्ची भक्ति नहीं हो सकती। जब तक आप निष्काम भक्ति नहीं करेंगे तब तक ईश्वर भी आपको कोई फल नहीं देंगे।

234. पितबरता मैली भली, गले काँच को पोत,
सब सखियन में यों दिपै, ज्यों रवि ससि को जोत।

सरलार्थ: पतिव्रता स्त्री बेशक मैले कपड़ों में हो तब भी वह महान होती है। वह अपनी सभी सहेलियों में उसी तरह से आभावान होती है जैसे सितारों में सूर्य सबसे चमकदार होता है।

235. जा कारणि में ढूँढती, सनमुख मिलिया आइ,
धन मैली पिव ऊजला, लागि न सकौं पाइ।

सरलार्थ: व्यक्ति जिस कारण से किसी चीज को ढूँढता है, वह उसे उसी तरह से मिलती है। अगर मैं लालची होकर धन ढूँढता हूँ, तो मुझे वह व्याधि के रूप में मिलेगा लेकिन अगर मैं सदाचारी होकर धन ढूँढता हूँ तो वह मुझे अच्छे फल देगा।

236. पहुंचेगे तब कहैंगे, उमड़ैंगे उस ठाईं,
आजहूं बेरा समंद मैं, बोलि बिगू पैं काई।

सरलार्थ: जब मंजिल पर पहुंचेंगे तभी बताएंगे कि मंजिल कैसी है। अभी तो मैं भी बीच समंदर में हूँ अभी मैं क्या कह सकता हूँ । अर्थात जीते जी हम ईश्वर के बारे में कुछ नहीं बोल सकते कि वह कैसे हैं।

237. दीठा है तो कस कहूं, कहा न को पतियाइ,
हरि जैसा है तैसा रहो, तू हरिष- हरिष गुण गाइ।

सरलार्थ: जब मैंने भगवान को आँखों से देखा ही नहीं है, तो क्या कहूँ कि वे कैसे हैं, लेकिन वे जैसे भी हैं उसकी चिंता ना कर। तू सिर्फ खुश होकर उनका गुणगान करता चल।

238. भारी कहूँ तो बहुडरौं, हलका कहूं तौ झूठ,
मैं का जाणी राम कूं, नैनूं कबहूं न दीठ।

सरलार्थ: अगर मैं राम का गहरायी से बखान करता हूँ तो लोग डर जायेंगे (क्युँकि उन्हें समझ नहीं आएगा), और अगर हल्की महिमा बताता हूँ तो सब मुझे झूठा कहेंगे। ऐसे में मैं उनकी महिमा का क्या बखान करूँ , जब मैंने उन्हें अपनी आंखों देखा ही नहीं है।

239. कबीर एक न जाण्या, तो बहु जाण्या क्या होइ,
एक तै सब होत है, सब तैं एक न होइ।

सरलार्थ: कबीर कहते हैं कि जब मैंने एक भगवान को ही नहीं जाना है, तो बहुत सारे भगवान को कैसे जान सकता हूँ । लेकिन इतना पता है कि एक ही भगवान से सब पैदा हुए हैं लेकिन सबको मिलाकर भी वह एक नहीं बन सकता है।

240. कबीर रेख स्यंदूर की, काजल दिया न जाइ,
नैनूं रमैया रमि रहम, दूजा कहाँ समाइ।

सरलार्थ: कबीर कहते हैं कि अब मेरी आँखों में काजल नहीं समा सकता। क्योंकि उसमें तो राम और रहीम वास करते हैं। उनके होते हुए अब और चीजें उनमें कैसे समा सकती है।

Indian Poet : Kabir Ke Dohe

241. ग्यानी मूल गँवाइया, आपण भये करना,
ताथै संसारी भला, मन मैं रहै डरना।

सरलार्थ: अगर ज्ञानी लोग दुनिया के सामने डरते हैं तो लोग उन्हें ज्ञानी नहीं मानते हैं। इसलिए दुनिया के सामने मत डरो बल्कि डरना है तो अपने मन में ही डरो।

242. कामी लज्जा न करे, न माहें अहिलाद,
नींद न मांगे सांथरा, भूख न माँगे स्वाद।

सरलार्थ: कामी मनुष्य कभी भी शर्म नहीं करते हैं और वह ईश्वर से भक्ति भी नहीं माँगते। जैसे नींद कभी बिछोना नहीं माँगती और भूख कभी स्वाद नहीं ढूँढती।

243. भगति बिगाड़ी कामियां, इंद्री केरै स्वादि,
हीरा खोया हाथ थैं, जनम गँवाया बादी।

सरलार्थ: हमारी काम- वासना हमारी भक्ति को बिगाड़ देती है जिससे हमारी इंद्रियां स्वाद की लोभी हो जाती हैं। इसके कारण हम हीरे जैसे जन्म को भी खो देते हैं और अपने समय को भोग विलास में गंवा देते हैं।

244. परनारी का राचणौ, जिसकी लहसण की खानि,
खूणैं बेसिर खाइय, परगट होइ दिवानि।

सरलार्थ: दूसरी स्त्री पर नजर रखना मानो लहसुन की खान को खाने जैसा है। जिससे पूरा शरीर जल जाएगा और तरह-तरह के रोग लग जायेंगे।

245. परनारी रातों फिरै, चोरी बिढ़िता खाहिं,
दिवस चारि सरसा रहै, अति समूला जाहिं।

सरलार्थ: पर नारी के चक्कर में कुछ लोग रातों को यहाँ – वहाँ फिरते हैं और चोरी – चकारी भी करने लगते हैं। वे चार दिन तो मौज मस्ती कर लेते हैं लेकिन अंत में वे बहुत दुख भोगते हैं।

246. कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि घरी खटाई,
राज-दुबारा यों फिरै, ज्याँ हरिहाई गाइ।

सरलार्थ: कलयुग में हर कोई लोभी हो चुका है। लोग पीतल को भी सोना बता रहे हैं। और राजा के पास जा जाकर ऐसे बता रहे हैं जैसे उन्होंने हरि की तपस्या कर रखी हो।

247. स्वामी हूवा सीतका, पैलाकार पचास,
राम नाम काठें रह्मा, करै सिषा की आस।

सरलार्थ: राम के लिए 50 रिश्ते आए लेकिन फिर भी वे सीता के स्वामी हुए। क्योंकि वह उनकी सच्ची भक्ति करती थी। इसलिए हमेशा राम नाम का सुमिरन करते रहें और तभी आप उन्हें पाने की (या शिक्षा की) आशा कर सकते हैं। Timeless Kabir Ke Dohe.

248. इहि उदर के कारणे, जग पाच्यो निस जाम,
स्वामी – पणौ जो सिरि चढयो, सिरयो न एको काम।

सरलार्थ: पेट के लालच के कारण सारा पाचन तंत्र ही जाम हो जाता है। इसी प्रकार से अगर किसी के सिर पर स्वामी बनने का भूत चढ़ जाए तो एक भी काम सफल नहीं हो पता।

249. ब्राह्मण गुरु जगत का, साधू का गुरु नाहिं,
उरझि – पुरझि करि भरि रह्म, चारिउँ बेदा माहिं।

सरलार्थ: ब्राह्मण संसार का गुरु हो सकता है लेकिन साधु का गुरु नहीं हो सकता। क्योंकि ब्राह्मण चारों वेदों को पढता तो है लेकिन उनमें उलझ कर रह जाता है और उनका सार नहीं जानता। जबकि साधु के पास सच्चा ज्ञान होता है।

250. कबीर कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोइ,
लालच लोभी मसकरा, तिनकूँ आदर होइ।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि कलयुग ने बहुत ही बुरा काम कर दिया है। अब कोई ऋषि – मुनि का आदर नहीं करता। अब तो केवल लालची, लोभी और मसखरों का ही आदर – सत्कार हो रहा है।

Bhaktikaal: Kabir Ke Dohe

251. कबीर इस संसार कौ, समझाऊं कै बार,
पूंछ जो पकड़ै भेड़ की, उतर या चाहे पार।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि मैं इस संसार के लोगों को कितनी बार समझाऊँ कि भेड़ की पूँछ पकड़ कर आप भवसागर को पार नहीं कर सकते हैं। अर्थात इन ढोंगी साधुओं की बातों को सुनकर आपका कल्याण नहीं होगा।

252. सबै रसाइण मैं क्रिया, हरि सा और न कोई,
तिल इक घर मैं संचरे, तौ सब तन कंचन होई।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि मैंने हर रसायन का इस्तेमाल करके देख लिया है लेकिन ईश्वर की भक्ति के बराबर कोई भी नहीं है। जब आप एक घर में तिलों को संचित कर लोगे तो एक दिन वह कंचन की तरह हो जाएंगे अर्थात व्यक्ति धीरे-धीरे संचित करे तो उसकी भक्ति भी बहुत महान हो जाती है।

253. हरि-रस पीया जाणिये, जे कबहुँ न जाइ खुमार,
मैमता घूमत रहै, नाहि तन की सार।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि प्रभु भक्ति के रस को पीना सीखिए। इस भक्ति का खुमार कभी नहीं उतरता है। इसके बाद आप सारी दुनिया में नंगे पैर घूम सकते हैं और आपको अपने शरीर की भी चिंता नहीं रहेगी।

254. कबीर हरि-रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि,
पाका कलस कुंभार का, बहुरि न चढ़ई चाकि।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि जब मैंने ईश्वर भक्ति का रस पिया तो मुझे कोई थकान नहीं बची। मैं इस प्रकार से पक्का हो गया जिस प्रकार कुम्हार का घड़ा पक्का हो जाता है। और उसे फिर से चाक पर नहीं चढ़ाना पड़ता।

255. कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठेआई,
सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तौ पिया न जाई।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि यह दुनिया कोयले की भट्टी की तरह है। आपको इसमें बैठना पड़ेगा। लेकिन जब तक आप अपना घमंड नहीं छोड़ोगे आप हरि के नाम का रस नहीं पी पाओगे। अर्थात भक्ति से ही आप दुनिया की बुराई में से भी आप अच्छाई ले पाओगे।

256. त्रिक्षणा सींची ना बुझै, दिन दिन बढ़ती जाइ,
जवासा के रुष ज्यूँ, घण मेहां कुमिलाई। Kabir Ke Dohe.

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि लालच को कितना भी सींचिये, वह दिन व् दिन बढ़ता ही जाएगा। लेकिन अगर आप उसका तिरस्कार करना सीख गए तो एक ही क्षण में वह कुम्हला जाता है अर्थात मर जाता है।

257. कबीर सो घन संचिये, जो आगे कू होइ,
सीस चढ़ाये गाठ की, जात न देख्या कोइ।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि मनुष्य को ऐसे धन का संचित करना चाहिए जो मृत्यु के बाद उसके साथ जाए। अर्थात अच्छे कर्म करने चाहिए। आज तक किसी को भी भौतिक धन की गांठ को अपने सिर पर ले जाते हुए नहीं देखा गया है।

258. कबीर माया मोहनी, जैसी मीठी खांड,
सतगुरु की कृपा भई, नहिं तौ करती भांड।

सरलार्थ: कबीर के अनुसार माया एक मोहिनी की तरह है। यह मीठी चीनी की तरह लगती है। लेकिन जिसे सतगुरु की कृपा प्राप्त हो जाती है वह इससे बच जाता है वरना यह लोगों को नष्ट कर देती है।

259. कबीर माया पापरगी, फंद ले बैठी हाटि,
सब जग तौ फंदे पड़या, गया कबीर काटि।

सरलार्थ: कबीर कहते हैं कि माया एक बहुत बड़ी पापिनी है। और वह फंदा लेकर बैठी रहती है। इसने सारे संसार के लोगों पर फंदा डाल रखा है। लेकिन कबीर ने इसे काट दिया है। अर्थात भक्ति से हम माया को काट सकते हैं।

260. कबीर जग की जो कहै, भौ जलि बूड़ै दास,
पारब्रह्म पति छाँड़ि करि, करै मानि की आस।

सरलार्थ: यह संसार भक्तों को पानी के बुलबुले की तरह समझता है। इसलिए संसार के लोगों की चिंता छोड़कर हमें पार ब्रह्म परमेश्वर की भक्ति में मन लगाना चाहिए जो सबके पालनहार हैं।

Kabir Ke Dohe – World Famous Verses

261. बुगली नीर बिटालिया, सायर चढ़या कलंक,
और पखेरू पी गये, हंस न बौवे चंच।

सरलार्थ: बगुली चोरी से पानी इकट्ठा कर लेती है और इससे उसके सिर पर कलंक लग जाता है। लेकिन इस पानी को दूसरे पंछी पी जाते हैं। लेकिन हंस जो सज्जन होता है इस पानी में अपनी चोंच भी नहीं डुबोता।

262. कबीर इस संसार का, झूठा माया मोह,
जिहि धारि जिता बाधावणा, तिहिं तिता अन्दोह।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि इस संसार से मोह रखना एक झूठ है। इस मोह को आप जितना बढ़ाते हैं उतना ही बढ़ता जाता है। लेकिन अंदर ही अंदर ही आपको हमेशा दुख देता है।

263. माया तजी तौ क्या भया, मानि तजि नही जाइ,
मानि बड़े मुनियर मिले, मानि सबनि को खाइ।

सरलार्थ: अगर आपने माया को छोड़ भी दिया है लेकिन अहंकार को नहीं छोड़ा है तो भी कोई फायदा नहीं है। कबीर कहते हैं कि उन्होंने बड़े-बड़े अहंकारी लोगों को देखा है जिन्हें उनके अहंकार ने ही नष्ट कर दिया।

264. करता दीसै कीरतन, ऊँचा करि करि तुंड,
जाने-बूझै कुछ नहीं, यौं ही अंधा रुंड।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि पाखंडी पुरुष सबको दिखा – दिखा कर कीर्तन करता है। लेकिन उसे किसी भी चीज का ज्ञान नहीं होता और वह मानो एक अंधे ठूँठ की तरह होता है।

265. कबीर पढियो दूरि करि, पुस्तक देइ बहाइ,
बावन आषिर सोधि करि, ररै मर्मे चित्त लाई।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि पुस्तक पढ़ कर उसे बहा देना चाहिए। बेशक उसमें से 52 अक्षर ही ढूँढ कर निकालिए, लेकिन वे अक्षर आपके मर्म को छू जाने चाहिए।

266. मैं जाण्यूँ पाढ़िबो भलो, पाढ़िबो थे भलो जोग,
राम-नाम सूं प्रीती करि, भल भल नीयों लोग।

सरलार्थ: मैं जानता हूँ कि पढ़ना अच्छी चीज होती है। और बहुत से भले लोग पढ़ाई – लिखाई करते हैं। फिर भी जो राम नाम की भक्ति करते हैं वे पढ़े-लिखों से ज्यादा बेहतर होते हैं।

267. पद गाएं मन हरषियां, साषी कहाँ आनंद,
सो तत नांव न जानियां, गल में पड़िया फंद।

सरलार्थ: मानव को मन चाहे गाने जरूर गाने चाहिए। इससे उन्हें आनंद मिलता है। लेकिन अगर वह राम का नाम नहीं लेगा, तो मानों उसके गले में दुःख का फंदा पड़ा रहेगा। Most Popular Kabir Ke Dohe .

268. जैसी मुख तै नीकेसै, तैसी चाले चाल,
पार ब्रह्म नेडा रहै, पल में करै निहाल।

सरलार्थ: जैसी बातें कोई मानव करता है उसके कर्म भी वैसे ही होते हैं। इसलिए अगर आप पारब्रह्म परमेश्वर को अपने नजदीक रखें तो वे आपको पल में ही खुशहाल कर देंगे।

269. काजी- मुल्ला भ्रृमियाँ, चल्या यूनीं कै साथ,
दिल थे दीन बिसारियां, करद लई जब हाथ।

सरलार्थ: काजी और मुल्ला एक दिन साथ-साथ ही चलेंगे। मृत्यु के पश्चात वे एक दूसरे का हाथ पकड़ेंगे और अपने भेदभाव को भूल जायेंगे।

270. प्रेम – प्रिति का चालना, पहिरि कबीरा नाच,
तन-मन तापर वारहुँ, जो कोइ बौलौ सांच।

सरलार्थ: भक्ति और प्रेम का पहनावा पहनकर कबीर झूम – झूम कर नाच रहा है। कबीर कहते हैं कि मैं अपना तन – मन को उस पर बलिदान कर सकता हूँ जो कोई मुझे राम की सच्चाई बताये।

Kabir Ke Dohe for Guidance

271. साईं सेती चोरियां, चोरा सेती गुझ,
जाणैंगा रे जीवयेगा, मार पड़ैगी तुझ।

सरलार्थ: ईश्वर मेरे मन के भीतर हैं और मेरे मन को चुरा रहे हैं। वे ही जानते हैं कि मैं कल को जिऊंगा या मुझ पर कोई कष्ट आकर पड़ेगा।

272. तीरथ तो सब बेलड़ी, सब जग मेल्या छाय,
कबीर मूल निकंदिया, कौण हलाहल खाय।

सरलार्थ: तीर्थ जाना व्यर्थ है क्योंकि वहाँ हर जगह मेले लगे हुए हैं। कबीर कहते हैं कि मैंने तो सार को ग्रहण कर लिया है और इस तरह के आडम्बर के जाहर को कौन खाएगा।

273. मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि,
दसवां द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछिरिग।

सरलार्थ: मन मथुरा है और दिल द्वारिका है और यह शरीर काशी जैसा है। लेकिन हमारी आत्मा दसवें द्वार से होते हुए परलोक चली जाएगी।

274. मेरे संगी दोई जरग, एक वैष्णो एक राम,
वो है दाता मुक्ति का, वो सुमिरावै नाम।

सरलार्थ: मेरे दो ही साथी हैं एक विष्णु और एक राम। विष्णु मुक्ति के दाता हैं और राम मेरे मुंह से नाम का सुमिरन करवाते हैं।

275. मथुरा जाउ भावे द्वारिका, भावै जाउ जगनाथ,
साथ- संगति हरि-भगति, बिन-कछु न आवै हाथ।

सरलार्थ: मथुरा जाइए या द्वारका जाइए या जगन्नाथ जाइए। लेकिन अगर आप साधुओं की संगति नहीं करते हैं और ईश्वर की भक्ति नहीं करते हैं तो आपके हाथ में कुछ भी नहीं आने वाला है।

276. जप-तप दीसैं थोथरा, तीरथ व्रत बेसास,
सूवै सैंवल सेविया, यौ जग चल्या निरास। Best Kabir Ke Dohe.

सरलार्थ: जप और तप दिखावा लगते हैं, तीर्थ और व्रत भी व्यर्थ के लगते हैं। जिस व्यक्ति ने साधुओं की सेवा नहीं कि वह इस जग से निराश होकर ही जाएगा।

277. जेती देखौ आत्म, तेता सालिगराम,
राधू प्रतषि देव हैं, नहीं पाथ सूँ काम।

सरलार्थ: अगर आपने अपनी आत्मा के दर्शन कर लिए हैं तो आपको हर जगह शालिग्राम पत्थर ही दिखेंगे। जिनमे देवी राधा के पति का वास होता है। और फिर आपको इस जग से कोई काम नहीं रह जाता है।

278. उज्जवल देखि न धीजिये, वग ज्यूँ माडै ध्यान,
धीर बौठि चपेटसी, यूँ ले बूड़ै ज्ञान।

सरलार्थ: उज्जवल चीजों को देखकर आप उन पर मोहित ना हो जाइए। बल्कि धीरज धरकर अपने मन में चिंतन कीजिए और गहरे ज्ञान को हासिल करने की कोशिश कीजिए।

279. जेता मीठा बोलरगा, तेता साधन जारिग,
पहली था दिखाइ करि, उड़ै देसी आरिग।

सरलार्थ: जितना मीठा आप बोलते हैं उतना ही अच्छा कर्म भी करिए। क्योंकि अगर आप ऐसा नहीं करेंगे तो आपका यह मुखौटा पहली ही नजर में उड़ जाएगा।

280. कबीर तास मिलाइ, जास हियाली तू बसै,
नहिंतर बेगि उठाइ, नित का गंजर को सहै।

सरलार्थ: कबीर जी ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि जो मेरे हृदय में बास करते हैं उनसे मिला दीजिये। नहीं तो हे ईश्वर मुझे उठा ले, क्योंक हर दिन के दुख में नहीं सह सकता।

Kabir Ke Dohe (संत कबीर के दोहे)

281. कबीरा बन-बन में फिरा, कारणि आपणै राम,
राम सरीखे जन मिले, तिन सारे सवेरे काम।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि वे राम को ढूंढने के लिए जंगल – जंगल फिरे। उन्हें राम तो नहीं मिले लेकिन राम जैसे लोग मिल गए। और इससे भी उनके सारे काम सिद्ध हो गए।

282. कबीर मन पंषो भया, जहाँ मन वहाँ उड़ि जाय,
जो जैसी संगति करै, सो तैसे फल खाय।

सरलार्थ: कबीर कहते हैं कि यह मन पंछी की तरह है और कहीं भी उड़ जाता है। और उसके साथ यह शरीर भी चला जाता है। लेकिन जो जिस तरह की संगति करता है उसे वैसे ही फल भोगने पड़ते हैं।

283. हरिजन सेती रुसणा, संसारी सूँ हेत,
ते णर कदे न नीपजौ, ज्यूँ कालर का खेत।

सरलार्थ: अगर संत लोग संसार के कर्मों से रुष्ट हो जाते हैं तो भी संसार खुद को नहीं बदलता। संसार के लोग उसी तरह नहीं बदलते जिस तरह खेत से खरपतवार कभी खत्म नहीं होती।

284. काजल केरी कोठड़ी, तैसी यहु संसार,
बिलवारी ता दास की, पैसिर निकसण हार।

सरलार्थ: यह संसार काजल की कोठड़ी जैसा है। तथा इसमें कुछ भी नजर नहीं आता। लेकिन जो प्रभु की शरण में जाते हैं वे तो उसके आर पार देख लेते हैं लेकिन जो ऐसा नहीं करते वे सच को देखने में असफल रहते हैं।

285. कबीरा खाई कोट कि, पानी पिवै न कोई,
जाइ मिलै जब गंग से, तब गंगोदक होइ।

सरलार्थ: कबीर कहते हैं कि अगर एक बहुत गहरी खाई में पानी हो तो उसे कोई नहीं पी सकता है। लेकिन जब वह गंगा में जाकर मिल जाता है तो गंगा जल की तरह पवित्र हो जाता है। इसलिए हमें अपना अहंकार छोड़कर संत जनों की संगत करनी चाहिए। (Kabir Ke Dohe with Hindi meaning).

286. माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंख रही लपटाई,
ताली पीटै सिरि घुनै, मीठै बोइ माइ।

सरलार्थ: मक्खी अपने लालच के कारण गुड़ में फंस जाती है। और फिर पंख फड़फड़ती रहती है। लेकिन वह कितनी भी कोशिश कर ले वहाँ से निकल नहीं पाती और वहीं पर मर जाती है। इसी प्रकार से मनुष्य भौतिक पदार्थों के लालच में फँसा हुआ है।

287. मूरख संग न कीजिये, लोहा जलि न तिराइ,
कदली-सीप-भुजंग मुख, एक बूंद तिंह भाइ।

सरलार्थ: मूर्खों का संगति कभी नहीं करनी चाहिए। और लोहे को कभी भी पानी में नहीं डालना चाहिए। जिस तरह से कच्चे केले और सांप के मुंह में जहर होता है और जिसकी एक बूंद भी आपके लिए घातक है, उसी तरह से मूर्ख भी आपके लिए हानिकारक होते हैं।

288. पाणी हीतै पातला, धुवाँ ही तै झीण,
पवनां बेगि उतावला, सो दोस्त कबीर कीन्ह।

सरलार्थ: अगर गर्म पानी को एक पतीले में डाला जाए तो पानी तो नीचे बैठ जाता है लेकिन उसका धुँआँ ऊपर आ जाता है। उसी प्रकार से मुसीबत के समय नकली दोस्त भी आंधी के वेग की तरह गायब हो जाते हैं।

289. आसा का ईंधन करूँ, मनसा करूँ बिभूति,
जोगी फेरी फिल करूँ, यौं बिनना वो सूति।

सरलार्थ: मैं अपने मन में आशा का दीपक जलता हूँ और इच्छा को जलाकर विभूति बनाता हूँ। जोगी बनकर मैं इधर-उधर फिरता हूँ। लेकिन बिना प्रभु के आशीर्वाद के में वैसा ही हूँ जैसे बिना धागे के सुई होती है।

290. कबीर मारु मन कूँ, टूक-टूक है जाइ,
विव की क्यारी बोइ करि, लुणत कहा पछिताई।

सरलार्थ: कबीर कहते हैं कि मैं अपने मन में नफरत भर ली जो अब मुझे धीरे-धीरे मार रही हैं। लेकिन विष की क्यारी बोकर अब उसकी फसल काटने में पछतावा कैसा।

Kabir Ke Dohe for Motivation

291. कागद केरी नाव री, पाणी केरी गंग,
कहै कबीर कैसे तिरूँ, पंच कुसंगी संग।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि कागज की नाव यदि आप गंगा नदी में भी डाल दो, लेकिन पांच बुरे लोगों की संगति में वह नहीं तैरेगी। अर्थात बुरे लोगों की संगति हमें डुबो ही देती है।

292. मैं मन्ता मन मारि रे, घट ही माँहै घेरि,
जबहीं चालै पीठि दे, अंकुस दै-दै फेरि।

सरलार्थ: संत कबीर कहते हैं कि मन को हमेशा काबू में रखना चाहिए। इसमें बार-बार इच्छायें उठ जाती हैं। लेकिन जब भी हमारा मन बुरे रास्ते पर चलता है तो उसे छड़ी से पीट कर वापस लाना चाहिए।

293. मनह मनोरथ छाँड़िये, तेरा किया न होइ,
पाणी में घी नीकसै, तो रूखा खाइ न कोइ।

सरलार्थ: कबीर जी कहते हैं कि हे मनुष्य, अपनी इच्छाओं को छोड़ दो इनसे कुछ भी नहीं मिलने वाला है। अगर पानी से घी निकलता तो कोई भी रूखी – सूखी रोटी नहीं खाता। उसी तरह इच्छाओं से दुःख ही मिलता है।

294. एक दिन ऐसा होएगा, सब सूं पड़े बिछोइ,
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होइ।

सरलार्थ: एक दिन ऐसा आएगा कि सब लोग मृत्यु के बिस्तर पर पड़े होंगे। फिर वे राजा हों, कहीं के सम्राट हों, या छत्रपति हों। सबको सावधान रहना चाहिए कि एक दिन मृत्यु आनी है और घमंड नहीं करना चाहिए।

295. कबीर नौबत आपणी, दिन-दस लेहु बजाइ,
ए पुर पाटन, ए गली, बहुरि न देखै आइ।

सरलार्थ: कबीर अपनी नौबत (वाद्य यंत्र) 10 दिन बजा लो। इसके बाद यह शहर और गली दुबारा नहीं देख पाओगे। अर्थात जीवन बहुत छोटा है और मृत्यु के बाद यह दोबारा नहीं देखा जाता।

296. जिनके नौबित बाजती, भैंगल बँधते बारि,
एकै हरि के नाम बिन, गए जनम सब हारि।

सरलार्थ: कुछ लोग जोर-जोर से नौबत बजाते हैं और दूसरे यंत्र बजाते हैं। लेकिन जब तक ईश्वर का नाम जप ना करें तब तक ऐसे लोगों के सब जन्म असफल हो जाते हैं। Kabir Ke Dohe in Hindi.

297. कैसो कहा बिगाड़िया, जो मुंडे सौ बार,
मन को काहे न मूँड़िये, जामे विषम-विकार।

सरलार्थ: अपने बालों को क्यों बिगाड़ते हो और सिर को बार-बार क्यों मुँड़वाते हो। अगर मुँड़वाना ही है तो अपने मन के विकारों को मुँडवाइये।

298. निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटि छबाय,
बिन पानी साबुन बिना, निरमल करे सुभाय।

सरलार्थ: निंदा करने वाले को हमेशा अपने निकट रखना चाहिए। हो सके तो आंगन में उसके लिए कुटिया बना देनी चाहिए। क्योंकि वह साबुन और पानी के बिना ही आपके स्वभाव को निर्मल बना देता है।

299. कुशल-कुशल जो पूछता, जग में रहा न कोय,
जरा मुई न भय मुवा, कुशल कहां ते होय

सरलार्थ: सारा संसार आपसे पूछता है कि क्या कुशल हो। लेकिन न हमारा बुढ़ापा मरता है और ना ही हमारा भय मरता है। ऐसे में कोई कुशल कहाँ से हो सकता है।

300. भेष देख मत भूलिये, बूझि लीजिये ज्ञान ,
बिना कसौटी होत नहीं, कंचन की पहिचान।

सरलार्थ: किसी का भेष देखकर भ्रमित मत होइए। अगर वह ज्ञान की बात कर रहा है तो उससे ज्ञान ले लेना चाहिए। क्योंकि बिना कसौटी के आप सोने की पहचान नहीं कर सकते हैं।

समाप्त।

दोस्तो, उम्मीद है इन दोहों (Kabir Ke Dohe) को पढ़कर आपको जीवन के प्रति दार्शनिक ज्ञान मिला होगा। तथा कबीर की बुद्धि से आप प्रभावित हुए होंगे।

इस ब्लॉग पर और भी ज्ञानवर्धक तथा रोचक लेख , किस्से, कहानियाँ, सुविचार आदि दिए गए हैं। आप उन्हें भी पढ़ें और अपने ज्ञान में बृद्धि करे। धन्यवाद।

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